राजनीति में कोई किसी का स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता, यह बात पहले न जाने कितने बार साबित हो चुकी है। लेकिन चुनावों के नजदीक आते ही मित्रता, शत्रुता के समीकरण जिस तेजी से बदलते हैं, उसे देखकर आश्चर्य होता है। विचारधारा नाम की जो अवधारणा बनाई गई है, वह राजनीतिक दलों और चुनावी उम्मीदवारों के संदर्भ में एकदम खोखली नजर आती है। राजनेता एक खेमे से दूसरे खेमे में जाने का प्रचलन तब से चला आ रहा है, जब से राजनीति हो रही है, इस लिहाज से इसे मानव की मूलभूत प्रवृत्तियों में एक माना जाना चाहिए। भारत में जब राजनीतिक लाभ या पद के लोभ में दलबदल की प्रवृत्ति बेलगाम दिखने लगी, तो इसे रोकने के लिए कानून बना। अब कम से कम इतना है कि नेता जल्दी-जल्दी पाला नहीं बदलते, अन्यथा संसद या विधानसभा की सदस्यता खत्म होने का खतरा रहता है। लेकिन चुनावों के वक्त इतना डर नहीं रहता। लिहाजा ठाठ से जिसे, जहां, जैसी सुविधा, लाभ मिले, वहां वह चले जाए। इस बार के चुनाव यूं तो कई मायनों में खास होने जा रहे हैं, मसलन सबसे लंबी अवधि में होने वाले चुनाव, मतदाताओं की अधिक संख्या, पहले से प्रधानमंत्री प्रत्याशी घोषित कर व्यक्ति आधारित चुनाव लडने की परिपाटी डालना, इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ सोशल मीडिया का बोलबाला, कांग्रेस, भाजपा के अलावा आम आदमी पार्टी का दिनोंदिन बढता जोर, तीसरे मोर्चे के साथ-साथ चैथे मोर्चे के लिए जमीन तलाशना यह सब हो रहा है। लेकिन सबसे रोचक है नेताओं का एक दल से दूसरे दल में जाना या गठबंधन करना या सीटों का अघोषित समझौता करना। धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, समाजवाद, पूंजीवाद, क्षेत्रीयता सबका एक दूसरे में इस कदर घालमेल हो गया है कि किसी का भी असली चेहरा पहचानना कठिन है, विचारधारा तो दूर की बात है। अमूमन टिकट न मिलने पर लोग नाराज होते हैं और दूसरी पार्टी में चले जाते हैं। यूं तो कई नामी-गिरामी लोगों ने इस बार भाजपा की सदस्यता ग्रहण की है, लेकिन टिकट और सीटों को लेकर भीतर जैसा तूफान मचा हुआ है, उससे भाजपा के लोग भी डरे हुए हैं कि न जाने क्या हो जाए। आयाराम, गयाराम की यह कहानी रोज समाचारों में आ रही है, आज उसने फलां पार्टी की सदस्यता ले ली, आज उसने फलां दल को छोड दिया। चुनाव होने और नयी सरकार बनने तक, आने-जाने का यह तमाशा जनता के लिए पेश होता रहेगा।
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