Friday 28 February 2014

रामविलास का भाजपा मिलाप!!



लोजपा नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के अपने परंपरागत मित्र लालू प्रसाद यादव या नीतिश कुमार के बजाय भाजपा का दामन थामने पर आश्चर्य भले ही व्यक्त किया जा रहा होए लेकिन इसके आसार बहुत पहले से नजर आने लगे थे। क्योंकि रामविलास पासवान के पास इसके सिवा कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था। लालू यादव के साथ गठबंधन का परिणाण वे एक बार भूगत चुके थे। नीतीश कुमार के साथ दोस्ती में भी उनके सामने जोखिम था। लिहाजा अवसरवादी राजनीति के जीवंत मिसाल रामविलास पासवान के लिए  12 साल बाद फिर राजग में लौटना ही सर्वाधिक सुविधाजनक था। वैसे भी रामविलास पासवान हमेशा धारा के साथ बहने में यकीन करते हैं। मंडल राजनीति की उपज पासवान यदि वीपी सिंह की अंगुली पकड़ कर राजनीति की पगडंडी पर चले,

 तो देवगौड़ा से लेकर गुजराल और वामपंथी दल और फिर एकदम यू टर्न लेते हुए वाजपेयी सरकार की शोभा बढ़ाने से भी नहीं हिचकिचाए। एेसे में भारत में घुसे अवैध बंगलादेशियों को भारत की नागरिकता देने की मांग कर चुके पासवान यदि फिर उसी भाजपा के साथ हो गएए जिसे वे पिछले 12 साल तक कोसते रहे, तो इस पर आश्चर्य कैसा। वैसे अवसरवादिता के लिए सिर्फ पासवान को ही क्यों दोष दिया जाए। एक राज्य की मुख्यमंत्री को पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों को जेल से रिहा करना जरूरी लगा क्योंकि इससे उसे अपने  प्रदेश में राजनैतिक फायदा मिलना तय है।  देशद्रोह व अन्य जघन्य अपराध में जेलों में बंद रहे पंजाब के भुल्लर और कश्मीर के अफजल गुरु के मामले में पंजाब और कश्मीर में लंबी राजनीतिक पारी खेली जा चुकी है । एक और महिला मुख्यमंत्री ने राजकाज संभालते ही मस्जिदों के इमामों के लिए मासिक भत्ते का एेलान कर दिया। यह जानते हुए भी सरकारी खजाने की हालत खराब हैए और इससे दूसरे वर्गों में भी एेसी मांग उठ सकती है।  बिहार के कथित सुशासन बाबू कहे जाने वाले मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को अचानक अपने प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने का सूझाए और लगे हाथ उन्होंने बंद का ऐलान भी कर दिया। क्योंकि आखिर लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें भी तो अपने तरकश में कुछ तीर सजाने हैं। केंद्र सरकार जल्द ही अपने कर्मचारियों के लिए वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने वाली हैए यह जानते हुए भी इससे सरकारी खजाने पर अरबों का बोझ बढ़ेगा , साथ ही देश में महंगाई और आर्थिक असमानता भी भयंकर रूप से बढ़ेगी। लेकिन सरकार मजबूर है क्योंकि सरकार चलाने वालों को जल्द ही चुनावी दंगल में कूदना हैए और एकमुश्त वोट पाने के लिए सरकारी कर्मचारियों को खुश करने से अच्छा उपाय और कुछ हो नहीं सकता। केंद्र की देखादेखी राज्यों की सरकारें भी अपने कर्मचारियों का समर्थन पाने के लिए वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने को मजबूर होंगी। इससे देश में कायम अराजकता का और बढ़ना बिल्कुल तय है। लेकिन सवाल है कि देश के उन करोड़ों लोगों का क्या होगा ए जो रोज कमा कर खाते हैं। महंगाई के अनुपात में जिनकी कमाई रत्तीभर भी नहीं बढ़ पाती। 

मुश्किल में है सरकार...

लगता है कि भारत की सरकार बहुत बूरे दिनो से गुजर रही हैं। आये दिन सरकार के खिलाफ कुछ न कुछ खुलासा किया जा रहा हैं। जिसके कारण सत्ता की कुर्सी डगमगाने लगी हैं। लोकसभा चुनाव  जैसे जैसे नजदीक आते जा रहे है वैसे वैसे सरकार के लिए मुश्किले बढ़ती जा रही हैं अगर देखा जाए तो यूपीए चारो ओर से घिर चुकी हैं। जितने घोटालेए भ्रष्टाचारए महंगाईए बलात्कार और अन्य गडबडियों के खुलासे यूपीए के शासनकाल में हुए है उतनी किसी और पार्टी के शासनकाल में नहीं हुई होगी। विरोधी पार्टियों के आरोपों से लगता है कि यूपीए सरकार घोटाले की सरकार बनती जा रही हैं। हाल में हुए खुलासे से सरकार हिल चुकी हैं। कोल ब्लॉक आवंटन तथा २ जी स्पेक्ट्रम पर मुश्किल में फंसी यूपीए सरकार को कैग की ताजा रिपोर्ट ने एक और धक्का दिया है।
विपक्ष के लगातार दबाव के बावजूद न तो इन जिम्मेदार मंत्रियों को और न ही तत्कालीन दूरसंचार मंत्री को अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया गया। पर अब खुद ए राजा की ओर से स्थिति साफ की गई है कि नीलामी में प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को सारी जानकारियां थीं। विपक्ष को युपीए सरकार को घेरने का मौका मिल गया।
सिर्फ यही नहीं कि द्रमुक और तृणमूल की समर्थन वापसी से जेपीसी में यूपीए का बहुमत नहीं हैए बल्कि भाजपाए वाम दलए द्रमुक और सपा की नाराजगी तथा पीसी चाको को पद से हटाने की उनकी मांग को देखते हुए जेपीसी की रिपोर्ट के संसद में पेश होने पर ही संदेह है।
इसी तरह कोल ब्लॉक आवंटन से जुड़ी सीबीआई की जांच रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय में पेश किए जाने से पहले सरकार पर उसमें बदलाव करने के जो आरोप लगे हैंए वे काफी गंभीर हैं और सांविधानिक संस्थाओं के कामकाज में दखल देने के आरोपों से इंकार नहीं किया जा सकता।
यदि सीबीआई इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय को सच बता देती हैए तो सरकार की छवि और खराब होगी। मनमोहन सिंह से इस्तीफा मांगने की भाजपा की मांग पर सोनिया गांधी का सख्त रुख अपनी जगह हैए लेकिन इस पूरे प्रसंग में सबसे ज्यादा किरकिरी प्रधानमंत्री और उनके कार्यालय की ही हो रही है। ऐसे में अब प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह की जिम्मेदारी है कि वे लोगों के इस भ्रम को तोड़े कि वे सिर्फ सोनिया गांधी के कठपूतली के तरह काम करते हैं।  इस शासनकाल में इनके अलावा भी कई घोटाले उजागर हुए लेकिन उनका अभी तक कोई निर्णय नहीं हो पाया हैं। दूसरा मुद्दा जो कि सबके रोंगटे खडे कर देता हैं। आखिर कब तक इस तरह के दूष्कर्मो से बच्चियांए लडकियां और महिलाएं पीड़ित होती रहेगी या मरती रहेगीघ् बीते साल १६ दिसंबर को दिल्ली गैंगरेप की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि गुडिया रेप केस ने सरकार के लिए नई मुश्किल खड़ी कर दी है। पांच साल की बच्ची से रेप की पृष्टभूमि में हाल फिलहाल शुरू  हुए बजट सत्र के दूसरे चरण में कानून व्यवस्था को लेकर सरकार का घिरना तय है। दिल्ली में इस रेप कांड को लेकर जबरदस्त जनाक्रोश है।दिल्ली पुलिस एक बार फिर से कठघरे में खड़ी है। इस पकरण को लेकर केद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे को सदन में जवाब देना मुश्किल होगया। भाजपा तो कांग्रेस पार्टी के सांसद और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित भी सरकार से दिल्ली पुलिस के कमिश्नर नीरज कुमार को हटाने की मांग पर अड़े हैं। मालूम हो कि दिल्ली पुलिस केद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है और कानून व्यवस्था के बिगड़ने की जब बात आती है तो जनता को जवाब दिल्ली सरकार को देना पड़ता है। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पहले भी दिल्ली पुलिस को दिल्ली सरकार के अधीन करने की मांग कर चुकी हैं। दिल्ली में पीएम आवास १० जनपथ दिल्ली पुलिस मुख्यालय पर जबरदस्त प्रदर्शनों के बीच शुरू हो रहे सत्र में विपक्षी हमलों से सरकार का बचना आसान नहीं होगा। सरकार के लिए ये राहे आसान नहीं लगती हैं।

Friday 21 February 2014

जिसकी बीवी मोटी उसका ही बड़ा नाम हैं

महिला सशक्तीकरण को लेकर महिलाएँ भले ही न चिन्तित होंए लेकिन पुरूषों का ध्यान इस तरफ कुछ ज्यादा होने लगा है। जिसे मैं अच्छी तरह महसूस करता हूँ। मुझे देश.दुनिया की अधिक जानकारी तो नहीं हैए कि ष्वुमेन इम्पावरमेन्टष् को लेकर कौन.कौन से मुल्क और उसके वासिन्दे ष्कम्पेनष् चला रहे हैंए फिर भी मुझे अपने परिवार की हालत देखकर प्रतीत होने लगा है कि अ बवह दिन कत्तई दूर नहीं जब महिलाएँ सशक्त हो जाएँ।
मेरे अपने परिवार की महिलाएँ हर मामले में सशक्त हैं। मसलन बुजुर्ग सदस्यों की अनदेखी करनाए अपना.पराया का ज्ञान रखना इनके नेचर में शामिल है। साथ ही दिन.रात जब भी जागती हैं पौष्टिक आहार लेते हुए सेहत विकास हेतु मुँह में हमेशा सुखे ष्मावाष् डालकर भैंस की तरह जुगाली करती रहती हैं। नतीजतन इन घरेलू महिलाओं ;गृहणियोंध्हाउस लेडीजद्ध की सेहत दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बनने लगी है फिर भी इनके पतिदेवों को यह शिकायत रहती है कि मेवाए फल एवं विटामिन्स की गोलियों का अपेक्षानुरूप असर नहीं हो रहा है और इनकी पत्नियों के शरीर पर अपेक्षाकृत कम चर्बी चढ़ रही है। यह तो आदर्श पति की निशानी हैए मुझे आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यद्यपि मैंने सुन रखा था कि सिनेमा जगत और समाज की महिलाएँ अपने शरीर के भूगोल का ज्यादा ख्याल रखती हैंए इसीलिए वह जीरो फिगर की बॉडी मेनटेन रखने में विश्वास रखती हैं। यह तो रही फिल्मी और कमाऊ महिलाओं की बात।
मेरे परिवारध्फेमिलीध्कुनबे की बात ही दीगर है। पतियों की सेहत को तो घुन लगा है और उनकी बीबियाँ हैं कि ष्टुनटुनष् सी नजर आती हैं। परिवार के सदस्य जो पतियों का दर्जा हासिल कर चुके हैं। वह बेचारे प्रख्यात फिल्मी गीतकार मरहूम गुलशन बावरा की शक्ल अख्तियार करने लगे हैं। और उनके सापेक्ष महिलाओं का शरीर इतना हेल्दी होने लगा है जिसे ष्मोटापाष् ;ओबेसिटीद्ध कहते हैं। यानि मियाँ.बीबी दोनों के शरीर का भूगोल देखकर पति.पत्नी नहीं माँ.बेटा जैसा लगता है। यह तो रही मेरे परिवार की बात। सच मानिए मैं काफी चिन्तित होने लगा हूँ। वह इसलिए कि 30.35 वर्ष की ये महिलाएँ बेडौल शरीर की हो रही हैंए और इनके पतिदेवों को उनके मोटे थुलथुल शरीर की परवाह ही नहीं।
मैं चिन्तित हूँ इसलिए इस बात को अपने डियर फ्रेन्ड सुलेमान भाई से शेयर करना चाहता हूँ। यही सब सोच रहा था तभी मियाँ सुलेमान आ ही टपके। मुझे देखते ही वह बोल पड़े मियाँ कलमघसीट आज किस सब्जेक्ट पर डीप थिंकिंग कर रहे हो। कहना पड़ा डियर फ्रेन्ड कीप पेशेंस यानि ठण्ड रख बैठो अभी बताऊँगा। मुझे तेरी ही याद आ रही थी और तुम आ गए। सुलेमान कहते हैं कि चलो अच्छा रहा वरना मैं डर रहा था कि कहीं यह न कह बैठो कि शैतान को याद किया और शैतान हाजिर हो गया। अल्लाह का शुक्र है कि तुम्हारी जिह्वा ने इस मुहावरे का प्रयोग नहीं किया। ठीक है मैं तब तक हलक से पानी उतार लूँ और खैनी खा लूँ तुम अपनी प्रॉब्लम का जिक्र करना। मैंने कहा ओण्केण् डियर।
कुछ क्षणोपरान्त मियाँ सुलेमान मेरे सामने की कुर्सी पर विराजते हुए बोले. हाँ तो कलमघसीट अब बताओ आज कौन सी बात मुझसे शेयर करने के मूड में होघ् मैंने कहा डियर सुलेमान वो क्या है कि मेरे घर की महिलाएँ काफी सेहतमन्द होने लगी हैंए जब कि इनकी उम्र कोई ज्यादा नहीं है और ष्हम दो हमारे दोष् सिद्धान्त पर भी चल रही हैं। यही नहीं ये सेहतमन्द.बेडौल वीमेन बच्चों को लेकर आपस में विवाद उत्पन्न करके वाकयुद्ध से शुरू होकर मल्लयुद्ध करने लगती हैं। तब मुझे कोफ्त होती है कि ऐसी फेमिली का वरिष्ठ पुरूष सदस्य मैं क्यों हूँ। न लाज न लिहाज। शर्म हया ताक पर रखकर चश्माधारी की माता जी जैसी तेज आवाज में शुरू हो जाती हैं।
डिन्डू को ही देखो खुद तो सींकिया पहलवान बनते जा रहे हैंए और उनकी बीवी जो अभी दो बच्चों की माँ ही है शरीर के भूगोल का नित्य निश.दिन परिसीमम करके क्षेत्रफल ही बढ़ाने पर तुली है। मैंने कहा सिन्धी मिठाई वाले की लुगाई को देखो आधा दर्जन 5 माह से 15 वर्ष तक के बच्चों की माँ है लेकिन बॉडी फिगर जीरो है। एकदम ष्लपचा मछलीष् तो उन्होंने यानि डिन्डू ने किसी से बात करते हुए मुझे सुनाया कि उन्होंने अपना आदर्श पुराने पड़ोसी वकील अंकल को माना है। अंकल स्लिम हैं और आन्टी मोटी हैं। भले ही चल फिर पाने में तकलीफ होती होए लेकिन हमारे लिए यह दम्पत्ति आदर्श है।
मैं कुछ और बोलता सुलेमान ने जोरदार आवाज में कहा बस करो यार। तुम्हारी यह बात मुझे कत्तई पसन्द नहीं है। आगे कुछ और भी जुबान से निकला तो मेरा भेजा फट जाएगा। मैंने अपनी वाणी पर विराम लगाया तो सुलेमान फिर बोल उठा डियर कलमघसीट बुरा मत मानना। मेरी फेमिली के हालात भी ठीक उसी तरह हैं जैसा कि तुमने अपने बारे में जिक्र किया था। मैं तो आजिज होकर रह गया हूँ। इस उम्र में तुम्हारे जैसे मित्रों के साथ ष्टाइम पासष् कर रहा हूँ। कहने का मतलब यह कि ष्जवन गति तोहरीए उहै गति हमरीष्ष् यानि डियर कलमघसीट अब फिरंगी भाषा में लो सुनो। इतना कहकर सुलेमान भाई ने कहा डियर मिस्टर कलमघसीट डोन्ट थिंक मच मोर बिकाज द कंडीशन ऑफ बोथ आवर फेमिलीज इज सेम। नाव लीव दिस चैप्टर कमऑन एण्ड टेक इट इजी। आँग्ल भाषा प्रयोग उपरान्त वह बोले चलो उठो राम भरोस चाय पिलाने के लिए बेताब है। तुम्हारे यहाँ आते वक्त ही मैंने कहा था कि वह आज सेपरेटा ;सेपरेटेड मिल्कद्ध की नहीं बल्कि दूध की चाय वह भी मलाई मार के पिलाए। मैं और मियाँ सुलेमान राम भरोस चाय वाले की दुकान की तरफ चल पड़ते हैं। लावारिस फिल्म में अमिताभ बच्चन पर फिल्माया गया गाना दूर कहीं सुनाई पड़ता है कि. ष्ष्जिस की बीवी मोटी उसका भी बड़ा नाम हैए बिस्तर पर लिटा दो गद्दे का क्या काम है।
भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

Saturday 15 February 2014

भैया! पापुलर तो नेपाल वाले प्रचंड भी कम नहीं हुए थे!!




झूठी उम्मीद, कोरा आश्वासन और दोषारोपण। गरीब देश हो अथवा  समाज या आदमी। इनकी जिंदगी नियति के इसी तिराहे पर भटकते हुए खत्म हो जाती है। गरीब कोई नहीं रहना चाहता। लेकिन भारतीय संस्कृति व समाज में गरीबी की महिमा अपरंपार है। एक उम्र गुजारने के बाद हमें मालूम हुआ कि धार्मिक आयोजनों में नर - नारायण सेवा वाले कालम का मतलब फटेहालों के बीच कुछ कंबल - कपड़े बांटना है। बचपन में फिल्मों में अमूमन सभी हीरों को गरीबी का बखान करते देख हमें अपने गरीब होने पर गर्व होता था। खासकर सदी के महानायक अमिताभ बच्चन गरीबी का महिमांडन कुछ इस प्रकार करते थे, कि हमें लगता था कि भगवान ने  गरीब बना कर हम पर बहुत बड़ा एहसान किया है। लेकिन खासा समय गुजारने के बाद इल्म हुआ कि  सारे हीरो गरीबी का बखान कर दरअसल अपनी गरीबी दूर करने में लगे हैं। अपने प्यारे  देश की बात बाद में करेंगे। पहले पड़ोस में बसे नेपाल, बंगलादेश व पाकिस्तान आदि की बात कर लें। यहां जब कभी सत्ता बदलती है, बदलाव के सपने देखे - दिखाए जाते हैं। लेकिन अंत में हासिल क्या होता है- वहीं गरीब की किस्मत। एक से निराश हुए तो फिर दूसरे से उम्मीद में टाइम पास। अब अपनी ही बात करूं।  घोर गरीबी और अभाव में बचपन बिता कर ठीक से जवान भी नहीं हो पाए थे कि माता - पिता ने शादी के तौर पर भारी जिम्मेदारी का पैकेज आकर्षक पैक में हमारे हाथों में थमा दिया। असमय बोझ तले दब कर कराहने लगे, तो आश्वासन मिला-  दिल छोटा क्यों करते हो, क्या पता - नवविवाहित पत्नी की किस्मत से ही तुम्हारा कुछ भला हो जाए। फिर एक - एक कर बच्चे होते गए, और हम नाना पाटेकर की तरह अपना सिर पीटने लगे, तो फिर वहीं आश्वासन- अरे मुंह क्यों लटकाए हो- देखना एक दिन यही बच्चे बड़ा होकर तुम्हारे दिन बदल देंगे। अब बच्चों का पालन - पोषण में कमर डेढ़ी हुई जा रही है तो भी, आश्वासनों की घुट्टी - बस कुछ दिन और सब्र करो, बच्चे आत्मनिर्भर हुए नहीं कि तुम्हारी किस्मत बदल जाएगी। अपने देश की किस्मत भी मैं कुछ ऐसा ही पाता हूं। बचपन में इंदिरा गांधी का बड़ा  नाम सुना था। किशोरावस्था में ही उनकी हत्या हो गई, और देश की कमान संभाली, उनके सुपुत्र राजीव ने। कहा गया मिस्टर क्लीन है। देश का भला हुआ समझो। लेकिन जल्द ही निराशा के बादल मंडराने लगे। फिर उम्मीद टिकी राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह पर। लेकिन जल्द ही उनसे भी लोगों का मोह भंग हो गया। चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने, लेकिन महज चार महीनों के लिए। सो  वे क्या कर सकते थे। नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर वर्तमान  मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने पर भी यही उम्मीद बंधाई गई थी कि गैर गांधी परिवार के ये तपे - तपाए नेता हैं। प्रधानमंत्री बनने से पहले ही दुनिया हिला चुके हैं। अब देर नहीं, देखते ही देखते देश की किस्मत बदल जाएगी। लेकिन हुआ क्या। अब देश की नई उम्मीद बन कर उभरे हैं सादी  टोपीवाले अरविंद केजरीवाल। कहा जा रहा है गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि का ईमानदार नेता हैं। आज दिल्ली में सफलता के झंडे गाड़े हैं। जल्द ही पूरे देश पर राज करेगा। पापुलरिटी में सब को पीछे छोड़ चुका है। जनता की किस्मत बदलने में अब कैसी देरी। लेकिन अपना मन कहता है कि भैया , पांच साल पहले ऐसे ही पापुलर तो नेपाल वाले प्रचंड भी हुए थे। राजशाही को उखाड़ फेंकने के चलते पुरी दुनिया उनकी प्रचंड लोकप्रियता की  मुरीद हो गई थी। लेकिन औंधे मुंह गिरने में भी उन्हें कितना समय लगा। इसलिए भैया , गरीब आदमी हो या देश। उनकी किस्मत तो भगवान ही बदल सकता है। आज केजरीवाल प्रचंड की जगह है क्या पता कल...

Monday 10 February 2014

शराबी के मुँह की दुर्गन्ध माँ और पत्नी को महसूस नही होती


हमारे खानदान के सभी ढाई, तीन, साढ़े तीन अक्षर नाम वाले लोग निवर्तमान नवयुवक हो चुके हैं, कुछ तो जीवन की अर्धशतकीय पारी खेल रहे हैं तो कई जीवन के आपा-धापी खेल से रिटायर भी हो चुके हैं। कुछ जो बचे हैं वे लोग अर्धशतकीय और उसके करीब की पारियाँ खेल रहे हैं। खानदान का नाम रौशन करना इनका परम उद्देश्य कहा जा सकता है मुझे तो आभास हो रहा है कि यदि इनका खेल इसी तरह जारी रहा तो वह दिन भी आ जाएगा जब देश के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित/पुरस्कृत होंगे। जी हाँ मुन्ना, बब्लू, गुड्डू, डब्ल्यू, रिंकू, सिन्टू, मिन्टू, बन्टी, गोलू आदि नाम वालों ने घर फूँक तमाशा का खेल जिस तरह से जारी रखा हुआ है उससे तो हमारा खानदान/गाँव राज्य में ही नहीं देश में सर्वोच्च स्थान पर होगा और इनमें एकाध को ‘देश रत्न’ का खिताब भी मिलेगा।
अब यह मत पूँछिएगा कि घर फूँक तमाशा कौन सा खेल होता है। यह एक मुहावरा है। असली खेल है ‘दारूबाजी’। जी हाँ यह एक अत्यन्त लोकप्रिय खेल है, यह बात अलहदा है कि ‘मीडिया’ ने अभी इधर रूख नहीं किया है। कैसे करें हमारे गाँव से ही कितने ऐसे लोग मीडिया में है जो इस खेल के पारंगत खिलाड़ी है तब भला हमारे गाँव के दारूबाजों का बाल बाँका कैसे हो सकता है।
‘‘फानूस बनके जिसकी, हिफाजत हवा करे।
वह शमा क्या बुझेगी, जिसे रौशन खुदा करे।।’’
मतलब यह कि मीडिया जैसा अस्त्र और कवच जब ढाई, तीन, साढ़े, तीन अक्षरों वालों के साथ है तब कलम/कैमरे का रूख उधर कैसे होगा? सामाजिक सरोकारों से सर्वथा दूर ये दारूबाज अपने काम को बखूबी अंजाम दे रहे हैं, यह बात सिर्फ उन्हें परेशान कर सकती है जो इनसे रिश्ते में काफी नजदीक हैं। चोरी हेराफेरी और जमीन जायदाद की बिक्री करना कोई इनसे सीखे। नशा करना है तो पैसा चाहिए पैसा नहीं है तो चोरी, हेराफेरी फिर जमीन जायदाद की बिक्री यह क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक आबकारी विभाग के जरिए सरकार को राजस्व की भरपूर आमदनी होती रहेगी।
एक बात मैने महसूस किया है कि किसी व्यक्ति के मुँह से निकलने वाली दारू की दुर्गन्ध उसकी माँ और पत्नी को नहीं महसूस होती। माँ और पत्नी के रिश्ते की घ्राण इन्द्रिय को इन व्यक्तियों की दुर्गन्धयुक्त स्वाँसों ने फालिज का शिकार बना दिया है। अरे भाई जरा रूकिए किसी वृद्धा माँ और प्रौढ़ स्त्री से यह मत कह दीजिएगा कि उनका पुत्र और पति शराबी है वर्ना आप जानो और आपका काम। अपना काम है समझाना सो कह रहा हूँ। कर डालो यह सुकार्य कहो कि अमुक व्यक्ति दारूबाज है। माताएँ और उनकी पत्नियाँ कोसना शुरू कर देंगी। इसे मेरी आप बीती भी मान सकते हो।
दारूबाज कितने प्रकार के होते हैं, सोचो कि यह कैसा प्रश्न है? जी हाँ यह सवाल है जिसका उत्तर बड़ा ही आसान है। एक बार नहीं अनेको बार मैने कइयों से पूँछा क्यों डियर तुम्हारे डैड नशा करते हैं, तुरन्त रिस्पान्स मिला हाँ सर जी लेकिन अपने पैसे की नहीं पीते हैं। चलो ठीक है ऐसे लोग पास/बेटिकट/मुफ्त में ही मौत का ग्रास बन रहे हैं। दारूबाजों के प्रकार में ठर्रा/कच्ची, देशी और विदेशी शराब के सेवन करने वालों को श्रेणीबद्ध करने के क्रम में- ठर्रा (कच्ची) कम पैसे वाले श्रमिक वर्गीय लोग पीते हैं। हमारे गाँव में मनरेगा का पैसा देशी दारू के सेवन में खर्च होता है। ऐसा करने वालों का मन हमेशा गाता है न कि मनरेगा के प्रत्येक अक्षर का फुलफार्म बाँचे। यदि ऐसा करने का बिल पावर जुटा भी लिया तो गाँधी जी को अपमानित होना पड़ेगा।
जब कोई प्रभावशाली/बड़ा आदमी शराब का नशा करके ऊल-जुलूल हरकतें करता है तब आम लोग इसके विरूद्ध आवाज नहीं उठाते हैं, परन्तु जब किसी साधारण व्यक्ति ने थोड़ा सा मदिरा सेवन कर लिया तो बावेला खड़ा। हमारे गाँव में रहने वाले परिवार/खानदान के लोगों की हालत भी कुछ ऐसी ही है। आए दिन शोर-शराबा और अराजकता फैलाकर ये दारूबाज इस बात की पुष्टि करते हैं कि इन लोगों ने जमकर मदिरा पान किया है। ढाई अक्षर नाम वाले अधेड़ भाई साहेब ने अपनी पुश्तैनी जमीन बेंचकर दारू पीना शुरू किया है। उनकी सेवा में हराम की पीने वालों की भीड़ लगी हुई है। एक तो तितलौकी दूजे नीम चढ़ी- ठाकुर जाति के हैं ऊपर से दारू का नाश्ता ऐसे में किसकी मजाल कि वह कह सके कि बाबू साहब दारू पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, आप अपनी मौत को दावत दे रहे हैं। यदि किसी ने कह दिया तो उनका यह उत्तर भी हो सकता है कि रोज-रोज पत्नी, बच्चों की बातें सुनकर घुट-घुटकर मरने से बेहतर है कि खा-पीकर मरूँ। पत्नी की डांट-मार खाकर मरने से अच्छा है कि शराब के जहर से ससम्मान मरूँ।
बाबू साहब की बात है- उनको समझाकर अपनी बेइज्जती कौन कराए? हमारे खानदान में कई और भी हैं जो पियक्कड़ की श्रेणी में नहीं कहे जाते हैं, लेकिन पीते हैं शान से। पैसा कमाते हैं इसलिए वाइन्स (ब्राण्डेड अंगरेजी शराब) पीते हैं, उनकी बड़ी इज्जत है। पैसा है कुछ बेंचकर वाइन्स का सेवन नहीं करना है, इसलिए वह लोग इज्जतदारों की श्रेणी में आते हैं। एक बात और ऐसे लोग जो शाम को रात्रि भोजन के पूर्व वाइन्स लेते हैं या फिर पार्टियों में मदिरा सेवन करते हैं बड़े लोगों में शुमार होते हैं। यह बात दीगर है कि वे भी पियक्कड़ ही हैं, फिर भी अपना मानना है कि हर दारूबाज को उनकी स्टाइल्स का अनुकरण अनुसरण करना चाहिए। इससे हर पियक्कड़ सम्मानित कहलाएगा।
हमारे कई बन्धु ऐसे हैं जो घर का खाद्यान्न, बर्तन, जेवर तक बेंचकर दारू गटक चुके हैं। मजाल क्या कोई तीसरा उल्लू का पट्ठा उनकी माताओं/पत्नियों और बच्चों से यह कहे कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। मेरा गाँव भी अद्वितीय है और यहाँ निवास करने वाले तो परम अद्वितीय। खुद मियाँ फजीहते- दीगरे नसीहते। इस एपीसोड में बस इतना ही क्योंकि लिखते-लिखते मेरा भी दारू पीने का मन होने लगा है। 

Sunday 9 February 2014

टेलीफोन सस्ता हो सकता है तो रेलवे और बिजली क्यों नहीं ...!!


90 के दशक के मध्य में एक नई चीज ईजाद हुई थी पेजर। बस नाम ही सुना था। जानकारी बस इतनी कि इसके माध्यम से संदेशों का आदान - प्रदान किया जा सकता था। दुनिया पेजर को जान - समझ पाती, इससे पहले ही मोबाइल फोन अस्तित्व में आ गया। हालांकि शुरू में इसे सेल्यूलर या सेल फोन के नाम से जाना जाता था। कुछ बड़े लोगों तक सीमित इस फोन से काल रिसीव करने का भी चार्ज लगता था। इस चार्ज के हटने पर मोबाइल फोन की पहुंच आम - आदमी तक हो गई। मैं मोबाइल का ग्राहक काफी बाद में बना। लेकिन तब भी मोबाइल रिचार्ज का न्यूनतम दर लगभग 350 रुपए मासिक था। इस राशि का करीब आधा हिस्सा महकमे के बट्टे खाते में चला  जाता था। जबिक आधी राशि से लोकल व एसटीडी काल के एवज में मोटी रकम काटी जाती थी। लेकिन  प्रतिस्पर्धा का कमाल ऐसा कि आज सेकेंड के दर से मोबाइल पर बात की सुविधा है। सवाल उठता है कि टेलीफोन के मामले में यह बदलाव क्या किसी जादू की छड़ी से हुआ है। बिल्कुल नहीं , निजी कंपनियों के बढ़ते प्रभाव और  प्रतिस्पर्धा के चलते ही आज लोगों को अपनी सुविधा के लिहाज से काल करने की सुविधा मिल पा रही है। जिसकी एक दशक पहले तक भी कल्पना नहीं की जा सकती थी। अब अहम सवाल है कि यदि टेलीफोन सस्ता हो सकता है, तो  रेलवे और बिजली क्यों नहीं। सवाल यह भी है कि टेलीफोन कंपनियां यदि आज लोगों को कम दर पर काल की सुविधा दे रही है, तो क्या जनहित में भारी घाटा उठा कर। यदि नहीं तो प्रतिस्पर्धा का दौर शुरू होने तक विभाग  ने जो अनाप - शनाप पैसा उपभोक्ताओं से लिया, वह किस - किस की जेब में गया। दूरसंचार विभाग के अधिकारी से लेकर कर्मचारी तक यही कहते हैं कि सुखराम से लेकर राजा तक ने उनके विभाग का पैसा ही हजम किया, क्योंकि सबसे ज्यादा पैसा इसी में है। वे यदि कामचोरी करते हैं, तो इसमें गलत क्या है। इसी तर्ज पर रेलवे और बिजली विभाग का कायाकल्प किया जाए, तो बेशक जनता को सस्ते दर पर परिसेवा मिलने लगेगी। अहम सवाल है कि आखिर  आम जनता को  क्यों इन दोनों महकमों के लिए दुधारू गाय बना कर रखा जाए, कि जब चाहा दूह लिया। तिस पर तुर्रा यह कि हर समय घाटे का रोना भी रोया जाता है। मानों ये दोनों  महकमे आम जनता पर कोई भारी एहसान कर रहे हों। इस संदर्भ में दिल्ली के नए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का बिजली कंपनियों का आडिट कराने का फैसला अभूतपूर्व , सराहनीय और ऐतिहासिक है। इसी तर्ज पर रेलवे के आय - व्यय का भी आकलन किया जाना चाहिए। जिससे पता लगे कि आखिर किस मजबूरी में ये जब चाहे , किराया बढ़ा कर पहले से परेशान जनता की परेशानी और बढ़ाने का कार्य करते हैं। सरकार की सदिच्छा हो तो काफी कुछ बदल सकता है। करीब एक दशक पहले तक सरकारी या राष्ट्रीयकृत बैकों में एक साधारण ग्राहक खाता खुलवाने में पसीने छूट जाते थे। आज वहीं बैंक गली - मोहल्लों में शिविर लगा कर लोगों के खाते खोल रहे हैं। यह परिवर्तन भी किसी जादू की छड़ी से नहीं हुआ है। बैंकिंग व्यवसाय में विदेशी बैंकों के कूद पड़ने, समय के साथ सुधार , और बैंकों को लाभ - हानि के प्रति जवाबदेह बनाने के चलते ही यह चमत्कार हुआ है।  इसी तरह से लोगों को सस्ती बिजली व बेहतर रेल परिसेवा भी मिल सकती है। बशर्ते इन विभागों में भी बैंक व टेलीफोन वाला फार्मूला अपनाया जाए और उन्हें जवाबदेह बनाया जाए।  

Thursday 6 February 2014

जाति तोड़ कर फंस गया रे भाया...!!

                                          

कोई यकीन करे या न करे, लेकिन यह सच है कि जाति तोड़ने का दुस्साहस कर मैं विकट दुष्चक्र में फंस चुका हूं। जिससे निकलने का कोई रास्ता मुझे फिलहाल नहीं सूझ रहा। पता नहीं  क्यों मुझे् यह डर लगातार सता रहा है कि मेरे इस दुस्साहस का बोझ मेरी आने वाली पीढि़यों को भी ढोने को अभिशप्त होना पड़ सकता है। दरअसल स्कूली जीवन में जाति तोड़ो आंदोलन की मैने काफी चर्चा सुनी थी। जयप्रकाश नारायण और चंद्रशेखर जैसे कुछ बगैर जाति सूचक उपनाम वाले नाम मुझे हैरानी में डाल देते थे। क्योंकि उस दौर में उपनाम हीं नहीं बल्कि नाम व उपनाम के आगे जाति का उल्लेख भी धड़ल्ले से होता था। जैसे पंडित फलां शास्त्री या ठाकुर विक्रम सिंह। उस दौर  में कुमार नामधारी हस्तियों का जलवा भी अपनी जगह था ही। जैसे दिलीप कुमार, किशोर कुमार व मनोज कुमार आदि। बस इसी से प्रभावित होकर मैने अपने नाम से जातिसूचक उपनाम हटा लिया। लिहाजा शैक्षणिक प्रमाण पत्रों में मेरा नाम उपनाम के बगैर रहा। लेकिन युवावस्था में कदम रखते ही मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने के साथ ही परिचय पत्र बनाने की नौबत आई, तो उसमें नाम से पहले उपनाम लिखना जरूरी था। इससे  मेरे नाम के साथ उपनाम अपने - आप जुड़ गया। अपने दायरे में लोग मुझे पूरे नाम से जानते ही थे। लिहाजा मैं एक ऐसे दुष्चक्र में उलझता गया कि नौबत अपने आप से पूछने की आ गई कि मैं आखिर हूं कौन। चूंकि मेरे नाम के साथ उपनाम नहीं था, लिहाजा अपने बेटे का नामकरण भी मैने बगैर उपनाम के ही करने का फैसला किया। लेकिन  समय के साथ लेन - देन में कठिनाई बढ़ने लगी। कुछ प्रपत्रों में बगैर उपनाम के औऱ कहीं पूरे नाम के साथ नजर आते ही अपने क्षेत्र में सुपरिचित होते हुए भी मैं संदिग्ध होता चला गया। संबंधित अधिकारी मुझे संदेह की नजरों से देखते हुए दो नाम के लिए कुछ इस अंदाज में पूछताछ करने लगते , मानो मैं कोई अपराधी हूं।और  अपने नाम के साथ जातिसूचक उपनाम न जोड़ कर मैन कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया। कई दफ्तरों में मुझसे पूछा गया ...आपनार नामेर सोंगे टाइटल नेई केनो, टाइटल छाड़ा आबार नाम होए ना कि ( आपके  नाम के साथ टाइटल क्यों नहीं है, बगैर टाइटल के भी कहीं नाम होता है क्या) शपथ पत्र देते - देते हुए मैं टूट गया, और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि जाति तोड़ने की कोशिश कर  मैं बुरी तरह से फंस चुका हूं। जल्द ही गलती नहीं सुधारी, तो मेरी बेवकूफी की सजा आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा। इसलिए मैने अपने और बेटे के नाम के साथ उपनाम जोड़ने के लिए दफ्तरों के  चक्कर काटना शुरू किया। यहां तक कि प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के समक्ष कटघरे में खड़ा हुआ कि नाम के साथ उपनाम न जोड़ कर मुझसे बड़ी गलती हो गई, अब मैं इसे सुधारना चाहता हूं। अदालती मुहर के बावजूद इसके लिए मैं पिछले दो साल से दफ्तरों के चक्कर काट रहा हूं। अपने राज्य के  शिक्षा मंत्री से लेकर  मुख्यमंत्री तक गुहार लगा कर थक गया।  लेकिन आज तक मेरे औऱ बेटे के नाम के साथ पुछल्ला जातिसूचक  उपनाम जोड़ने में सफल नहीं हो पाया हूं। एक बड़े अधिकारी से दोस्ती गांठ कर इतना जान पाया हूं, कि यह कार्य इतना आसान नहीं। बकौल अधिकारी हर महकमा इस बात की जांच करेगा कि आखिर क्यों इतने साल तक बगैर उपनाम के रहने के बाद यह शख्स अब  अपने नाम के साथ इसे जोड़ना चाहता हैं। कहीं इसके पीछे कोई गलत मकसद तो नहीं... बहरहाल अपनी ऐतिहासिक गलती पर सिर धुनते हुए मन बार - बार एक ही बात कहता है... जाति तोड़ कर फंस गया रे भाया... नाम के पीछे से जातिसूचक उपनाम न रख कर मैन अपनों पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारी, बल्कि कुल्हाड़ी पर पैर दे मारा था....

Monday 3 February 2014

जब कला बन जाए कारोबार ...!!

किसी जमाने में जब कला का आज की तरह बाजारीकरण नहीं हो पाया था, तब किसी कलाकार या गायक से अपनी कला के अनायास  और सहज प्रदर्शन की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। शायद यही वजह है कि उस दौर में किसी गायक से गाने की फरमाइश करने पर अक्सर गला खराब होने की दलील सुनने को मिलती थी। इसकी वजह शायद यही है कि किसी भी नैसर्गिक कलाकार के लिए थोक में रचना करना संभव  नहीं है। यदि वह ऐसा करेगा तो उसकी कला का पैनापन जाता रहेगा। हो सकता है कि वह उसकी  रचना की मौलिकता ही खत्म हो जाए। लेकिन बाजारवाद को तो  जैसे  कला को भी धंधा बनाने में महारत हासिल है। अब विवादों में फंसे कथित कमाडेयिन कपिल शर्मा का उदाहरण ही लिया जा सकता है।  दूसरी कलाओं की तरह कामे़डी भी एक गूढ़ विद्या है। मिमकिरी और कामे़डी का घालमेल कर कुछ लोग चर्चा में आने में सफल रहे। स्वाभाविक रूप से इसकी बदौलत उन्हें नाम - दाम दोनों मिला। इस कला पर कुछ साल पहले बाजार की नजर पड़ी। एक चैनल पर लाफ्टर चैलेंज की लोकप्रियता से बाजार को इसमें मुनाफा नजर आया, और शुरू हो गई फैक्ट्री में हंसी तैयार करने की होड़। कुछ दिन तो खींचतान कर मसखरी की दुकान चली,. लेकिन जल्दी ही लोग इससे उब गए। फिल शुरू हुआ कि कामेडी का बाजारीकरण। यानी जैसे भी हो, लोगों को हंसाओ। लेकिन वे भूल गए कि एक बच्चे को भी जबरदस्ती हंसाना मुश्किल काम है। आम दर्शक खासकर प्रबुद्ध वर्ग को हंसाना अासान नही। लेकिन बाजार तो जैसे हंसी के बाजार का दोहन करने पर आमाद हैै। उसे इससे कोई मतलब नहीं कि परोसी जा रही हंसी की खुराक में जरूरी तत्व है नही। बस जैसे भी हो कृत्रिम  ठहाकों और कहकहों से माहौल बदलने की कोशिश शुरू  हो गई। इस   प्रयास में कामेडियन कलाकारों के सामने फूहड़ हरकत करना औरल भोंडेपन का सहारा लेने के  सिवाय और कोई रास्ता नहीं बचा था। जाहिर है अश्ललीलता औ र  महिलाओं को  इस विडंबना का आसान शिकार  बनना ही  था। लेकिन आखिर इसकी भी तो कोई सीमा है। लिहाजा नौबत कपिल शर्मा से जुड़े ताजा विवाद तक जा पहुंची। यह भी तय है कि यदि बाजार ने हंसी को फैक्ट्री में जबरदस्ती पैदा करने की कोशिश जल्द बंद नहीं की तो ऐसे भोंडे कामेडी शो देख  कर लोगों को हंसी नहीं आएगी, बल्कि लोग अपना सिर धुनेंगे।

Saturday 1 February 2014

काजल की कोठरी में केजरीवाल...!!


बीवी का मारा बेचारा किसी से अपनी दुर्दशा कह नहीं सकता। इसी तरह सत्ता को कोस कर सत्ता पाने वाला भी यह कहने की हालत में नहीं रहता कि सब कुछ इतना आसान नहीं है। व्यवहारिक जिंदगी में कई बार एेसा होता है कि हमें बाहर से जो चीज जैसी दिखाई देती है, वह वस्तुतः वैसी होती नहीं। खरी बात यह कि सत्ता हो या राजनीति बाहर रहते हुए निंदा - आलोचना करना जितना आसान है, इसमें उतर कर सही मायने में कुछ करके दिखा पाना उतना ही कठिन। यही वजह है कि 70 के दशक में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई जनता पार्टी का इतिहास हो या 80 के दशक के मध्य में लोगों में उम्मीद बन कर उभरे राजा विश्वनाथ प्रताप सिहं। सत्ता मिलने के बाद सभी जन आकांक्षाओं को पूरा करने में बुरी तरह से नाकाम ही रहे। राजनीति की डगर कितनी कठिन  है इस बात का भान मुझे अपने युवावस्था के शुरूआती दिनों में ही हो गया था। जब स्थापित राजनेताओं व राजनैतिक दलों की मनमानी और  गलत कार्यों से नाराज होकर बगैर पृष्ठभूमि व तैयारी के ही मैं कारपोरेशन चुनाव में उम्मीदवार बन गया। चुनावी मौसम में ऐसे मौकों की तलाश में रहने वालों ने मुझे चने की पेड़ पर चढ़ाने में कोई कसर बाकी नहीं रहने दी। बहरहाल इससे मेरा उत्साह जरूर बढ़ा। कोई स्थापित राजनैतिक दल तो मुझे टिकट देने वाला था  नहीं , लिहाजा मैने एक विकासशील पार्टी से संपर्क किया। उस दल के गिने - चुने नेताओं के लिए तो यह बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने जैसा ही  था। उन्होंने मेरा स्वागत करते हुए हर्षित प्रतिक्रिया दी... आप जैसों का हमारे दल में आना शुभ है, आप को यह फैसला पहले ही लेना चाहिए था। बहरहाल हम आपको टिकट देंगे। फिर शुरू हुआ  मुसीबतों का दौर। पेशेवर राजनेता उम्मीदवारों के दबाव में समय के साथ  हमारे एक - एक कर साथी कम होते गए। कुछ ने गुप्त तरीके से तो कुछ ने खुल कर उनके साथ सौदेबाजी भी कर डाली। न घर का न घाट का .. जैसी हालत तो मेरी थी। वह मेरी  बेरोजगारी का दौर था। लिहाजा परिजनों ने हमारी इस नादानी पर छाती पीटना शुरू कर दिया। जिसे अपना शुभचिंतक समझते थे, उन्होंने भी हमें कोसते हुए मदद से हाथ खड़े कर दिए। यह और बात है कि उम्मीदवार बनने से पहले तक वे हमें पूरा साथ देने का आश्वासन दे रहे थे। उलाहना मुफ्त में दिया कि चुनाव लड़ कर कोई जीत तो जाओगे नहीं , क्यों फिजूल में इस झमेले में पड़े। जिस पार्टी ने हमें टिकट दिया था उसने भी यह कहते हुए आर्थिक मदद करने से इन्कार कर दिया कि चुनाव प्रचार को तमाम सेलीब्रिटीज आ रही है, उन पर होने वाला खर्च संभालनाही मुश्किल है। तुम्हारी मदद क्या की जाए। चुनाव नजदीक आने तक हमारी छोटी सी जेब खाली हो गई, तो अपने जैसे कुछ उम्मीदवारों को साथ लेकर हम आर्थिक सहायता मांगने निकल पड़े। जनता के बीच जाने पर उलाहना व तानों के सिवा क्या मिलना था, सोचा कुछ गिने - चुने सक्षम लोगों के सामने ही बात रखी जाए। लेकिन वहां भी घोर निराशा हाथ लगी। पेशेवर औऱ धंधेबाज राजनेताओं के लिए अपनी तिजोरी खोल देने वाले धनकुबेरों ने भी हमें सहायता के नाम पर तानों के साथ जो राशि दी, उससे कई गुना ज्यादा वे मोह्ल्लों में आयोजित होने वाले मेला और  पूजा समारोहों में देते थे।  आखिरी दौर में भी हमने देखा कि सामान्य दिनों में जिन नेताओं को लोग गालियां देते थे, चुनावी मौसम में उन्हीं के आगे - पीछे घूमते हुए उनके समर्थन में नारे लगा रहे थे। दूसरी ओर मैं  अनचाहे कर्ज के दलदल में फंसता जा रहा था। मेरी हालत चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु जैसी हो गई थी। इंतजार था तो बस चुनाव  खत्म होने का। चुनाव परिणाम घोषित होते ही धंधेबाज नेताओं के समर्थन में की जा रही हर्ष ध्वनि और  निकाले जा रहे जुलूस के शोर - शराबे  के बीच मैं लगभग वैसे ही भागा, जैसे पिंजरे से छूटने के बाद पक्षी आकाश की ओर उड़ान भरता है। इसलिए अरविंद केजरीवाल की हालत में अच्छी तरह समझ सकता हूं। उन्हें मेरी शुभकामनाएं...