Thursday 27 March 2014

अम्बेडकरनगर: गुटबाजी के भंवर जाल में उलझी भाजपा

मुरझाये कमल की शिरा और धमनियों में रवानी भरने में जुटी भाजपा एवं पार्टी के 272 प्लस के मिशन को उम्मीदवारों के खिलाफ अपनों की हो रही बगावत ने कमल खिलने से पहले ही मुरझाने के संकेत देने शुरू कर दिये हैं। नख से लेकर सिर तक गुटबाजी के भंवर जाल में उलझी भाजपा का अर्न्तकलह प्रत्याशियों के नामों के एलान के साथ सड़कांे पर सामने आ रहा है। पार्टी का अनुशासन तरनतार करने एवं मर्यादा की सीमाएं लाघने से लोग गुरेज नहीं कर रहे हैं। जिसके कारण कीचड़ में खिलने वाला कमल यहां कलह में डूबता नजर आ रहा है। अविभाजित फैजाबाद का हिस्सा रहे अम्बेडकरनगर संसदीय सीट से भाजपा ने डॉ0 हरिओम पाण्डेय को अपना उम्मीदवार घोषित किया है। लेकिन हरिओम पाण्डेय को टिकट के दावेदारों में सुमार रहे लोग पचा नहीं पा रहे हैं। एक धड़ा तो मुखर होकर सड़क पर उतरकर हरिओम की मुखालफत कर रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी ने अम्बेडकरनगर संसदीय क्षेत्र से फायर ब्रांड नेता राज्यसभा सदस्य विनय कटियार को मैदान में उतारा था। विनय कटियार को चुनाव में कामयाबी तो नहीं मिल पायी लेकिन उन्होनें कार्यकर्ताओं को एकजुट कर चुनावी समां भी बॉध दिया था। इस बार भी कार्यकर्ता विनय कटियार को प्रत्याशी बनाये जाने की मांग कर रहे थे लेकिन स्वयं कटियार फैजाबाद से चुनावी समर में उतरना चाह रहे थे। फैजाबाद से पार्टी ने पूर्व मंत्री लल्लू सिंह को तीसरी बार मैदान में उतार दिया। लिहाजा कटियार की फैजाबाद से उम्मीदवारी पर विराम लग गया फिर उनके अम्बेडकरनगर से उतरने के कयास लगने लगे। लेकिन पार्टी ने जब अम्बेडकरनगर सीट पर प्रत्याशी का एलान किया तो कार्यकर्ता हतप्रभ रह गये। पार्टी ने हरिओम पाण्डेय को उम्मीदवार घोषित कर दिया। जिनका मुखर विरोध भी शुरू हो गया। पिछले दो वर्षों से जिले की राजनीति में खासा सक्रिय श्री राम जन्मभूमि न्यास समिति के वरिष्ठ सदस्य एवं पूर्व सांसद राम बिलास वेदान्तीए पूर्व मंत्री अनिल तिवारीए भाजपा जिलाध्यक्ष राम प्रकाश यादवए पूर्व जिलाध्यक्ष डॉ0 राजितराम त्रिपाठीए रमाशंकर सिंहए भारती सिंहए अमरनाथ सिंहए इन्द्रमणि शुक्लए शिवनायक वर्माए भीम निषादए हिन्दु युवा वाहिनी जिलाध्यक्ष सूर्यमणि यादव सहित कई अन्य प्रमुख नेताओं एवं भाजपा प्रदेश कार्य समिति सदस्य राम सूरत मौर्य आदि की दावेदारी को दरकिनार कर दिया गया जिसके कारण असंतोष मुखर होना भी लाजिमी है। टिकट नहीं मिलने से नाराज राम बिलास वेदान्ती तो इस कदर आग बबूला हो उठे हैं कि वह भाजपा को अलविदा कहने का भी मन बना चुके हैं। सूत्रों की माने तो पूर्व सांसद राम बिलास वेदान्ती सपा में शामिल होकर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के विरूद्ध लखनऊ से चुनावी समर में उतर सकते हैं। ज्यादातर कार्यकर्ताओं का मानना है कि पार्टी को अम्बेडकरनगर से किसी बड़े कद के नेता को मैदान में उतारना चाहिए। जिले के आलापुर सु0 विधानसभा क्षेत्र को अपने आप में समेटने वाली संत कबीर नगर संसदीय सीट पर तो दावेदारों की लम्बी फेहरिश्त के कारण भाजपा नेतृत्व अभी तक प्रत्याशी के नाम का एलान नहीं कर पाया है वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने यहां पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डा0 रमापति राम त्रिपाठी के पुत्र शरद त्रिपाठी को मैदान में उतारा था। लेकिन शरद त्रिपाठी को कामयाबी नहीं मिल पायी। शरद त्रिपाठी को दूसरे स्थान पर रहकर ही संतोष करना पडा था। लिहाजा इस बार भी शरद त्रिपाठी का दावा काफी मजबूत है लेकिन पूर्व सांसद इन्द्रजीत मिश्रए अष्टभुजा शुक्ला एंव पूर्व मंत्री शिव प्रताप शुक्ला जैसे कद्दावर नेताओं की दावेदारी ने पार्टी नेतृत्व को उलझन में डाल दिया है। अभी तक पार्टी कोई निर्णय नहीं कर पायी है। सूत्रों की माने तो पार्टी नेतृत्व यहंा पर राष्ट्रीय उपाध्यक्षए मुख्तार अब्बास नकवी या फिर पूर्व मुख्यमंत्री स्व0 वीर बहादुर सिंह के पुत्र जो हाल ही में भाजपा में शामिल हुए हैं। उनमें से किन्हीं एक को मैदान में उतारा जा सकता है। कार्यकर्ता शरद त्रिपाठी या फिर पूर्व मंत्री शिव प्रताप शुक्ल को प्रत्याशी बनाने की मांग कर रहे हैं। यदि किसी बड़े नेता को मैदान में नहीं उतारा गया तो शरद त्रिपाठी का उतरना तय माना जा रहा है लेकिन एलान बिलम्ब ने कार्यकर्ताओं को बेचैन कर दिया है। ऐसे में मिशन 272 प्लस के पूरा होने में खलल पैदा हो सकता है।
रीता विश्वकर्मा

Wednesday 26 March 2014

विवाद का जाल

भारत और श्रीलंका के बीच एक दूसरे के मछुआरों की गिरफ्तारी को लेकर जब-तब खटास उभर आती है। यह अच्छी बात है कि दोनों देशों ने इस तनाव को खत्म करने की दिशा में पहल की है। पिछले हफ्ते श्रीलंका ने बुधवार को एक सौ सोलह, गुरुवार को चैबीस और इसके अगले रोज बत्तीस भारतीय मछुआरों को रिहा कर दिया। उनकी जब्त की हुई नावें भी लौटा दीं। इसी तरह का कदम तमिलनाडु सरकार ने भी उठाया। दोनों तरफ से दिखाए गए इस सौहार्द ने मछुआरा प्रतिनिधियों के स्तर पर होने वाली बातचीत का रास्ता साफ कर दिया है। उनकी बैठक तेरह मार्च को होनी थी। मगर तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने साफ कर दिया था कि इस सिलसिले में कोई भी बातचीत तभी होगी जब श्रीलंका सभी भारतीय मछुआरों को छोड दे। जो बैठक तेरह मार्च को नहीं हो सकी, नए घटनाक्रम के बाद, अब अगले हफ्ते होगी। आम चुनाव के मद््देनजर यह मसला तमिलनाडु के लिए और भी संवेदनशील हो गया है। सवाल यह है कि क्या दोनों तरफ के मछुआरों को गिरफ्तारी और उत्पीडन से बचाने की चिंता स्थायी समाधान की शक्ल ले पाएगी? जनवरी में श्रीलंका के मत्यपालन एवं जल संसाधन मंत्री राजित सेनारत्ने भारत आए थे। कृषिमंत्री शरद पवार से उनकी बातचीत हुई और यह सहमति बनी कि मछुआरों की सुरक्षा का प्रश्न जल्द से जल्द सुलझाया जाए। लेकिन इसके बाद भी मछुआरों की गिरफ्तारी का क्रम जारी रहा। ऐसा दोनों तरफ से होता रहा है। उनका गुनाह बस यह होता है कि अपनी आजीविका के सिलसिले में वे जाने-अनजाने समुद्री सीमा लांघ जाते हैं और बंदी बना लिए जाते हैं। तटरक्षक बल उनके साथ मनमाना सलूक करते हैं। न उनके मानवाधिकारों की फिक्र की जाती है न उन्हें कानूनी मदद मिल पाती है। श्रीलंका और भारत के कूटनीतिक रिश्तों में कुछ बरसों से वहां के तमिलों के पुनर्वास और मानवाधिकारों का सवाल प्रमुख रहा है। विडंबना यह है कि मछुआरों से जुडे मामले में दोनों तरफ पीडित लोग तमिल समुदाय के ही होते हैं। श्रीलंका में चले गृहयुद्ध के दौरान उत्तर पूर्वी प्रांत के लोगों के लिए समुद्र में मछली पकडना मुश्किल हो गया थाय श्रीलंकाई नौसेना उन्हें कुछ सौ मीटर से आगे जाने ही नहीं देती थी। लेकिन अब उनकी शिकायत रहती है कि भारतीय मछुआरे अक्सर उनकी सीमा में घुस आते हैं और मछली पकडना शुरू कर देते हैं। इस आरोप को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर, तमिलनाडु के मछुआरों का कहना है कि यह उनका परंपरागत व्यवसाय है और इस पर कोई बंधन नहीं रहा है। लेकिन तब मशीनी नौकाएं और बडे जाल नहीं होते थे। ट्रालरों के बढते गए चलन ने गहरे समुद्र में भी मत्स्य संपदा को तेजी से खाली करना शुरू कर दिया। विवाद को सुलझाने की प्रक्रिया में दोनों तरफ के मछुआरा संगठनों के नुमाइंदों को शामिल करना स्वागत-योग्य है, पर इसका ठोस नतीजा तभी निकल सकता है जब नियमन के कुछ उपाय किए जाएं। ट्रालरों पर रोक लगे और टकराव से बचने के लिए दोनों तरफ से मछली पकडने के दिन तय हों। समुद्री सीमा के अतिक्रमण की शिकायतों को संप्रभुता का उल्लंघन न मान कर मानवीय नजरिए से सुलझाया जाए। भारत और पाकिस्तान के भी मछुआरे हर साल सैकडों की संख्या में बंदी बना लिए जाते हैं और सीमापार की जेलों में सडते रहते हैं। जब भारत और पाकिस्तान को सौहार्द का कूटनीतिक संदेश देने की जरूरत महसूस होती है, एक तरफ से कुछ मछुआरों को रिहा करने की घोषणा होती है और फिर दूसरी तरफ से भी। लेकिन यह मानवीय मसला है। इसलिए इसे कूटनीतिक गरज से नहीं, मानवाधिकारों के नजरिए से देखा जाना चाहिए।



Monday 17 March 2014

दलबदल का सिलसिला


राजनीति में कोई किसी का स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता, यह बात पहले न जाने कितने बार साबित हो चुकी है। लेकिन चुनावों के नजदीक आते ही मित्रता, शत्रुता के समीकरण जिस तेजी से बदलते हैं, उसे देखकर आश्चर्य होता है। विचारधारा नाम की जो अवधारणा बनाई गई है, वह राजनीतिक दलों और चुनावी उम्मीदवारों के संदर्भ में एकदम खोखली नजर आती है। राजनेता एक खेमे से दूसरे खेमे में जाने का प्रचलन तब से चला आ रहा है, जब से राजनीति हो रही है, इस लिहाज से इसे मानव की मूलभूत प्रवृत्तियों में एक माना जाना चाहिए। भारत में जब राजनीतिक लाभ या पद के लोभ में दलबदल की प्रवृत्ति बेलगाम दिखने लगी, तो इसे रोकने के लिए कानून बना। अब कम से कम इतना है कि नेता जल्दी-जल्दी पाला नहीं बदलते, अन्यथा संसद या विधानसभा की सदस्यता खत्म होने का खतरा रहता है। लेकिन चुनावों के वक्त इतना डर नहीं रहता। लिहाजा ठाठ से जिसे, जहां, जैसी सुविधा, लाभ मिले, वहां वह चले जाए। इस बार के चुनाव यूं तो कई मायनों में खास होने जा रहे हैं, मसलन सबसे लंबी अवधि में होने वाले चुनाव, मतदाताओं की अधिक संख्या, पहले से प्रधानमंत्री प्रत्याशी घोषित कर व्यक्ति आधारित चुनाव लडने की परिपाटी डालना, इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ सोशल मीडिया का बोलबाला, कांग्रेस, भाजपा के अलावा आम आदमी पार्टी का दिनोंदिन बढता जोर, तीसरे मोर्चे के साथ-साथ चैथे मोर्चे के लिए जमीन तलाशना यह सब हो रहा है। लेकिन सबसे रोचक है नेताओं का एक दल से दूसरे दल में जाना या गठबंधन करना या सीटों का अघोषित समझौता करना। धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, समाजवाद, पूंजीवाद, क्षेत्रीयता सबका एक दूसरे में इस कदर घालमेल हो गया है कि किसी का भी असली चेहरा पहचानना कठिन है, विचारधारा तो दूर की बात है। अमूमन टिकट न मिलने पर लोग नाराज होते हैं और दूसरी पार्टी में चले जाते हैं। यूं तो कई नामी-गिरामी लोगों ने इस बार भाजपा की सदस्यता ग्रहण की है, लेकिन टिकट और सीटों को लेकर भीतर जैसा तूफान मचा हुआ है, उससे भाजपा के लोग भी डरे हुए हैं कि न जाने क्या हो जाए। आयाराम, गयाराम की यह कहानी रोज समाचारों में आ रही है, आज उसने फलां पार्टी की सदस्यता ले ली, आज उसने फलां दल को छोड दिया। चुनाव होने और नयी सरकार बनने तक, आने-जाने का यह तमाशा जनता के लिए पेश होता रहेगा।

Friday 14 March 2014

मौत में उम्मीद...!!


मौत तो मनुष्य के लिए सदा - सर्वदा भयावह और डरावनी रही है। भला मौत भी क्या किसी में उम्मीद जगा सकती है... बिल्कुल जगा सकती है। इस बात का भान मुझे अपने पड़ोस में दारुण पीड़ा झेल रही एक  गाय का हश्र देख कर हुआ। हमारे देश में गौ  हत्या और गौ रक्षा शुरू से ही बड़ा संवेदनशील मसला रहा है। इसके बावजूद यह सच है कि अपने देश में प्रतिदिन हजारों गायें तस्करी के रास्ते कत्लखाने पहुंच जाती है। वहीं यह भी सच है कि भारतीय संस्कृति व समाज में गाय का आज भी विशेष और महत्वपूर्ण स्थान है। चरम आधुनिकता के दौर में भी देश में अनेक ऐसे परिवार है, जिनके लिए गाय आज भी माता है। लेकिन यह भी विडंबना ही है कि जिस गौ को माता कह कर हम पूजते हैं, उसके सामान्य इलाज की व्यवस्था भी विज्ञान की बुलंदियां चूम रहा हमारा समाज नहीं ढूंढ पाया है। या शायद हम इसकी जरूरत महसूस नहीं करते। दरअसल  मेरे मोहल्ले की एक गाय कुछ दिन पहले निर्माणाधीन मकान के पास बनाए गए गड्ढे में गिर गई थी। तमाम कोशिशों के बाद उसे किसी प्रकार बाहर निकाला गया। लेकिन तब तक उसकी रीढ़ की हड्डी में फ्रैक्चर हो गया  था। शहर के चुनिंदा पशु चिकित्सकों से संपर्क कर गाय का इलाज शुरू हुआ। लेकिन शुरूआती दौर में ही डाक्टरों ने स्पष्ट कर दिया कि हड्डी का ज्वाइंट खुल गया है, दो एक डोज में यदि गाय रिकवर कर ले, तो ठीक, वर्ना कुछ नहीं किया जा सकता। चूंकि गाय को मरीज की तरह बेड पर लिटा कर नहीं रखा जा सकता, इसलिए उसकी टूटी हड्डी का प्लास्टर भी संभव नहीं। आखिरकार वहीं हुआ, जिसका डर था। भीषण ठंड में मूक गाय दर्द से बेहाल होने लगी। असहज होकर वह बार - बार उठने की कोशिश करती, लेकिन इस प्रयास में उसे और चोट लगती। जो उसकी पीड़ा को और बढ़ाता जाता। लेकिन कुछ नहीं किया जा सकता था। उसकी सांघातिक पीड़ा की यह शुरूआत थी। रात - दिन दर्द से छटपटाते रहने के बाद सामने खड़ी थी, उसकी तिल - तिल कर भयावह मौत। स्पष्ट था कि एक ही स्थान पर पड़े रहने के चलते उसके चमड़े व शरीर के दूसरे हिस्सों  में सड़न पैदा होंगे। जिससे असह्य बदबू फैलेगी। भीषण कष्टों के साथ गाय की दर्दनाक मौत का साक्षी बनने की कल्पना से ही पशुपालक परिवार सिहर उठा। भुक्तभोगियों की सलाह पर आखिरकार मौत में ही उम्मीद दिखाई दी। और दिल पर पत्थर रख कर पालकों ने उसे कसाई के हवाले कर दिया। अपने सहायकों के साथ पहुंचा कसाई लाद - फांद कर मरणासन्न गाय को एक वाहन पर पटक कर उसके अंजाम तक पहुंचाने निकल पड़ा। ऐसा नहीं था कि गाय पालने वाला परिवार इससे मर्माहत नहीं था। परिवार के छोटे - बड़े सारे सदस्यों की आंखों में आंसू थे। लेकिन नियति के आगे सभी विवश थे। क्योंकि मौत ही उस मूक पशु को इस दारुण कष्ट से मुक्ति दिला सकती थी। समाज की जरूरतों के लिहाज से एक छोटे से कस्बों में भी सैकड़ों गायों की जरूरत होती है। लेकिन कस्बा या शहर तो छोड़िए , बड़े नगरों में भी जानवरों के योग्य चिकित्सक व  पशु चिकित्सालय नहीं है। आखिर यह वैज्ञानिक प्रगति है कि मानव क्लोन बनाने में जुटा विज्ञान एक बेजुबान पशु की टूटी हड्डी न जोड़ सके। पशु सुरक्षा व अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले तमाम स्वयंसेवी संगठनों का ध्यान भी शायद अब तक इस त्रासदी की ओऱ नहीं गया है। आवश्यकता के चलते गायें आज भी पाली जा रही है। लेकिन एक विडंबना यह कि गाय से उत्पन्न बछड़ों को आज कोई अपनाने को तैयार नहीं। यहां तक कि चुनिंदा गौशालाएं भी। इसकी वजह शायद समय के साथ बैलों की उपयोगिता का खत्म होते जाना है। ऐसे में सैकड़ों बछड़े लावारिस इधर - उधर भटकने को मजबूर हैं। तारकेश कुमार ओझा,

Monday 10 March 2014

चुनाव खर्च

सरकार ने चुनाव खर्च की सीमा बढाने का निर्वाचन आयोग का प्रस्ताव मान लिया है। जाहिर है, इस फैसले से चुनाव लडने के इच्छुक लोगों ने राहत की सांस ली होगी। अभी तक चुनाव खर्च की सीमा लोकसभा उम्मीदवार के लिए चालीस लाख और विधानसभा उम्मीदवार के लिए सोलह लाख रुपए थी। इसे बढाने की मांग काफी समय से होती रही है। पखवाडे भर पहले निर्वाचन आयोग ने इस संबंध में कानून मंत्रालय को पत्र लिखा था। अब लोकसभा उम्मीदवार के लिए खर्च की सीमा सत्तर लाख कर दी गई है। अलबत्ता गोवा, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम जैसे छोटे राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों अंडमान निकोबार, चंडीगढ, दादरा एवं नगर हवेली, दमन एवं दीव, पुदुच्चेरी और लक्षद्वीप में लोकसभा उम्मीदवार के लिए बढी हुई खर्च सीमा चैवन लाख रुपए होगी। इसी तरह असम को छोड कर पूर्वोत्तर और पुदुच्चेरी में विधानसभा उम्मीदवार अब बीस लाख रुपए तक खर्च कर सकेंगे, जबकि बाकी देश में विधानसभा प्रत्याशियों को 28 लाख रुपए तक खर्च कर सकने की इजाजत होगी। खर्च-सीमा बढाने के पीछे कई तर्क थे। एक यह कि मतदाताओं की संख्या बढी है और इसी के साथ मतदान केंद्रों की भी। दूसरे, प्रचार सामग्री सहित तमाम चीजों की लागत बढ गई है। पर सवाल यह है कि क्या इस बढी हुई खर्च-सीमा के बाद चुनाव प्रचार में पारदर्शिता आएगी और उम्मीदवार अपने खर्चों का सही ब्योरा देंगे? इसकी उम्मीद बहुत कम है। पिछले साल भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया था कि 2009 के चुनाव में उन्होंने आठ करोड रुपए खर्च किए थे। इस पर आयोग ने उन्हें नोटिस जारी किया। पर इससे अधिक कोई कार्रवाई नहीं हुई। दरअसल, हर कोई जानता है कि मुंडे अपवाद नहीं थे, अधिकतर प्रत्याशियों का चुनावी खर्च उससे कई गुना होता है जितना वे आयोग को लिखित रूप में बताते हैं। ऐसे भी लोग होंगे जिन्होंने मुंडे से भी अधिक खर्च किया होगा। अगर वे सही हिसाब दें, जो कि निर्धारित सीमा से अधिक होगा, तो जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (6) के उल्लंघन के दोषी माने जाएंगे। इसलिए चंद प्रत्याशी ही वास्तविक ब्योरा देते होंगे। पर मुददा उम्मीदवारों का ही नहीं, पार्टियों की तरफ से होने वाले खर्च का भी है। पार्टियों के लिए खर्च की कोई हदबंदी नहीं है। इसका फायदा उठा कर बहुत सारा व्यय पार्टियों के हिस्से में दिखा दिया जाता है। फिर, प्रत्याशियों के लिए व्यय-सीमा का प्रावधान चुनाव घोषित होने के बाद लागू होता है। जबकि व्यवहार में चुनाव प्रचार उसके काफी पहले से शुरू हो जाता है। हालाकि चुनाव घोषणा के पूर्व से ही   रैलियों, पोस्टरों-बैनरों और विज्ञापनों पर अंधाधुंध  खर्च जारी है। ऐसे में उम्मीदवारों के लिए अधिकतम खर्च की मर्यादा बहुत मायने नहीं रखती।
अगर कोई दल या उम्मीदवार सादगी से अपना प्रचार अभियान चलाना चाहता और अपने खर्चों का सही ब्योरा देने को तैयार है तो उसके लिए जरूर नई व्यय-सीमा मददगार साबित होगी। लेकिन ज्यादातर मामलों में नए फैसले से भी कोई फर्क नहीं पडेगा। वास्तविक व्यय और आयोग को दिए जाने वाले हिसाब में भारी फर्क का सिलसिला चलता रहेगा। यों राजनीतिक दल यह दावा करते रहे हैं कि सारा खर्च वे अपने सदस्यों और समर्थकों से मिले चंदों से उठाते हैं। लेकिन असज कुछ ओर ही होता है। हमारी राजनीति के संचालन में काले धन की भूमिका होने की भी बात कही जाती है। दुनिया के अनेक देशों में पार्टियों के लिए अपने सारे चंदे का स्रोत बताना कानूनन अनिवार्य है। भारत में भी ऐसा किया जाना चाहिए। चुनाव सुधार के लिए समय-समय पर बनी समितियों ने बहुत-से मूल्यवान सुझाव दिए हैं। पर उनकी सिफारिशें धूल खा रही हैं। उनके सुझावों पर कब विचार होगा?

Thursday 6 March 2014

महानायक की महामजबूरियां ......!!

सहारा इंडिया प्रकरण से अपने जनरल नालेज में यह जानकर एक और इजाफा हुआ कि अपने महानायक यानी बिग बी यानी अमिताभ बच्चन जिन लोगों के एहसानों तले दबे हैं, उनमें सहारा इंडिया के सहाराश्री यानी सुब्रत राय सहारा भी शामिल हैं। अभी तक हम यही जानते थे कि महानायक केवल अपने छोटे भैया यानी अमर सिंह के एहसानों तले ही दबे हैं। खुद अमिताभ ने तो कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन अमर सिंह ने हताशा में कई बार कहा कि ,यदि वे नहीं होते तो सदी का यह महानायक मुंबई की सड़कों पर टैक्सियां चला रहा होता.। बकौल अमर सिंह यह स्वीकारोक्ति खुद बच्चन साहब की है। सहारा प्रकरण के जरिए चैनलों पर जो फुटेज चली उसमें साफ दिखाई देता है कि सहाराश्री के किसी समारोह में बच्चन साहब अपने पूरे परिवार के साथ न सिर्फ खुद ठुमके लगा रहे हैं. बल्कि अपने बेटे अभिषेक को भी नाचने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। इसी बहाने यह खुलासा हुआ कि बच्चन साहब पर एहसान करने वालों में सहाराश्री भी शामिल है। चैनलों पर बार - बार दिखाए गए फुटेज से भी इस बात की पुष्टि होती है कि सचमुच बिग बी उनके कायल थे। अन्यथा किसी की खुशी में कोई भला इस कदर नाचता है क्या । वैसे नाचने वालों में तो कई और दिग्गज  हस्तियां भी चैनलों पर दिखाई पड़ी । जो बगैर पैसों  के शायद अपना पसीना भी किसी को न देते हों। हालांकि यह खुलासा नहीं हो सका कि उन हस्तियों पर सहाराश्री ने कोई एहसान किया था या नहीं। कई बार खबर देखते समय चैनलों पर अक्सर दाऊद इब्राहिम का जिक्र हो आता है। इस दौरान कई बार चैनलों पर दिखाई दिय़ा कि दाऊद के बाल - बच्चों के शादी - ब्याह या जन्म दिन बगैरह पर बालीवुड के कई हस्तियां ने नाचा - गाया औऱ खुशियां मनाई। कुछ कलाकारों ने स्वीकार भी किया कि वे दाऊद इब्राहिम के कार्यक्रम में गए थे। अपनी सफाई में उन्होंने कहा कि वे कलाकार हैं, और पैसों के लिए कहीं भी चले जाते हैं। लेेकिन सहारा श्री बनाम बिग बी का यह मामला बिल्कुल नया है। क्योंकि सुब्रत राय सहारा के साथ उनकी नजदीकियां की ज्यादा चर्चा नहीं हो पाई थी। सब यही जानते हैं कि अमिताभ बच्चन की केवल अमर सिंह के साथ ही दांत - काटी रोटी का रिश्ता रहा है। इससे पहले अपने किशोरावस्था के दौरान हम सुनते थे कि अमिताभ बच्चन की नेहरु - गांधी परिवार के साथ  घनिष्ट संबंध हैं। लेकिन राजीव गांधी की मौत के बाद यह रिश्ता टूट गया। बाद में बिग बी मुलायम और अमर सिंह क नजदीक हो गए।  अब तक हम यही समझते थ कि साधारण लोगों के अापसी रिश्तों में ही उतार - चढ़ाव आता है। लेकिन सहाराश्री प्रकरण से यह साबित होता है कि बड़े - बड़े दिग्गजों को भी किसी न किसी के एहसान तले दबना पड़ता है। सदी का  महानायक हो या महा - आम आदमी -  जैसे कद का आदमी उस स्तर की उसकी  मजबूरियां .... । 

Tuesday 4 March 2014

नीतीशजी ! आप तो एेसे न थे...!!

कोलकाता से करीब 60 किलोमीटर पश्चिम में एक छोटा सा स्टेशन है दुआ। 1997 मे तत्कालीन रेल मंत्री के तौर पर  इस स्टेशन का उद्घाटन बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री  नीतीश कुमार ने किया था। कार्यक्रम के कवरेज के सिलसिले में देर तक नीतीश कुमार के साथ  रहने का अवसर मिला। वह जमाना लालू यादव का था।  लेकिन कुछ खासियतों के चलते मुझे नीतीश कुमार तब हिंदी पट्टी के बेहद सुलझे हुए नेता लगे थे। अपने गृह प्रदेश बिहार के लालू यादव के ठेठ देशी अंदाज के विपरीत नीतीश के व्यक्त्तिव  में गजब की सौम्यता थी। स्टेशन का उद्घाटन करने के साथ ही नीतीश ने रेलवे सुरक्षा बल जवानों के एक समारोह को भी संबोधित किया था। साधारणतः एेसे कायर्क्रमों में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थिति दर्ज कराते हुए रेल मंत्री जवानों के लिए इनामी  राशि व  तमाम लोकलुभावन घोषणाएं करते हैं। लेकिन परंपरा के विपरीत नीतीश कुमार ने इससे परहेज करते हुए केवल मुददे की बात कही। इससे मै इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि  हिंदी पट्टी से  और मंडल -कमंडल की राजनीति की उपज होने के बावजूद  नीतीश कुमार काफी सुलझे हुए हैं। 2005 में उनके बिहार का मुख्यमंत्री बनते - बनते रह जाने और फिर हुए उपचुनाव में भारी बहुमत से उनके मुख्यमंत्री बनने से लेकर 2011 में उनके दोबारा सत्तासीन होने तक नीतीश कुमार  के हर कदम व फैसले में परिपक्वता झलकती थी। हिंदी पट्टी के परंपरागत नेताओं के विपरीत अगड़ा - पिछड़ा और अल्पसंख्यक - बहुसंख्यक राजनीति से परहेज करते हुए नीतीश ने सुशासन बाबू की अपनी अच्छी - खासी पहचान बनी ली थी। जाति व धर्म के मुद्दे को छोड़ केवल सुशासन व विकास के मुद्दे पर लड़े गए चुनाव की वजह से तब मुझे बिहार सचमुच बदलता नजर आया था। क्योंकि पहली बार बिहार में हुए चुनाव में लालू के चर्चित माई समेत तमाम समीकरण ध्वस्त हो गए थे।   लेकिन अचानक नीतिश कुमार के  के फिर पुरानी लीक पर लौटने पर गहरा आश्चर्य हुआ। बेशक राजग या भाजपा से अलग होने का फैसला उनका व्यक्तिगत या दलगत मामला हो सकता है। लेकिन एेसा प्रतीत होता है कि  उनके इस कदम से किसी न किसी रूप में हिंदी पट्टी में मंडल - कमंडल और अल्पसंख्यक - बहुसंख्यक का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ  रहा है। नीतीश कुमार और उनके समर्थक मानें या न  मानें , लेकिन यह निश्चित है कि राष्ट्रीय जनता दल विधायकों को तोड़ने के कथित प्रयासों के चलते हाशिए पर पड़े लालू प्रसाद यादव को उन्होंने बेवजह ही सहानुभूित का पात्र बना दिया। इसी के साथ  उनकी साफ - सुथरी राजनीति की छवि को भी थोड़ा ही सही पर धक्का लगा है। क्या भारतीय राजनीति में मंडल - कमंडल,  अगड़ा - पिछड़ा या अल्पसंख्यक - बहुसंख्यक राजनीति से इतर राजनेता के उभरने की उम्मीद बेमानी है। इस बीच बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग पर उनकी पार्टी द्वारा बंद का आह्वान करना भी गले नहीं उतरा। चुनाव नजदीक आने पर ही नीतीश ने इस पर आक्रामकता क्यों दिखाई, और फिर विकास की बात करने वालों के मुंह से बंद की बात भी आम लोगों के गले नहीं उतरी। 
तारकेश कुमार ओझा