Saturday 7 June 2014

अनहोनी को होनी कर दे.....!!


तब मेहमानों के स्वागत में शरबत ही पेश किया जाता था। किसी के दरवाजे पहुंचने पर पानी के साथ चीनी या गुड़ मिल जाए तो यही बहुत माना जाता था। बहुत हुआ तो घर वालों से मेहमान के लिए रस यानी शरबत बना कर लाने का आदेश होता। खास मेहमानों के लिए नींबूयुक्त शरबत पेश किया जाता । लेकिन इस बीच बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शीतल पेय ने भी  देश में दस्तक देनी शुरू कर दी थी। गांव जाने को ट्रेन पकड़ने के लिए कोलकाता जाना होता. तब हावड़ा रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर हाकरों द्वारा पैदा की जाने वाली शीतल पेय के बोतलो की ठुकठुक की आवाज मुझमें इसके प्रति गहरी जिज्ञासा पैदा करने लगी थी। एक शादी में पहली बार शीतल पेय पीने का मौका मिलने पर पहले ही घुंट में मुझे उबकाई सी आ गई थी । मुझे लगता था कि बोतलबंद शीतल पेय शरबत जैसा कोई मजेदार पेय होगा। लेकिन गैस के साथ खारे स्वाद ने मेरा जायका बिगाड़ दिया था। लेकिन कुछ अंतराल के बाद शीतल पेय के विज्ञापन की कमान तत्कालीन क्रिकेटर इमरान खान व अभिनेत्री रति अग्निहोत्री समेत कई सेलीब्रिटीज ने संभाली और आज देश में शीतल पेय का बाजार सबके सामने है। कभी - कभार गांव जाने पर वहां की दुकानों में थर्माकोल की पेटियों में बर्फ के नीचे दबे शीतल पेय की बोतलों को देख कर मैं सोच में पड़ जाता हूं कि ठंडा यानी शीतल पेय शहरी लोग ज्यादा पीते हैं या ग्रामीण। खैर , पूंजी औऱ बाजार की ताकत का दूसरा उदाहरण मुझे कालेज जीवन में  क्रिकेट के तौर पर देखने को मिला । 1983 में भारत के विश्व कप जीत लेने की वजह से तब यह खेल देश के मध्यवर्गीय लोगों में भी तेजी से लोकप्रिय होने लगा था। लेकिन इस वजह से   अपने सहपाठियों के बीच मुझे झेंप होती थी क्योंकि मैं क्रिकेट के बारे में कुछ भी नहीं जानता था। मुझे यह अजीब खेल लगता था। मेरे मन में  अक्सर सवाल उठता  कि आखिर यह कैसा खेल है जो पूरे - पूरे दिन क्या लगातार पांच दिनों तक चलता है। कोई गेंदबाज कलाबाजी खाते हुए कैच पकड़ता औऱ मुझे पता चलता कि विकेट कैच लपकने वाले को नहीं  बल्कि उस गेंदबाज को मिला है जिसकी गेंद पर बल्लेबाज आउट हुआ है, तो मुझे बड़ा आश्चर्य होता। मुझे लगता कि विकेट तो गेंदबाज को मिलना चाहिए , जिसने कूदते - फांदते हुए कैच लपका है। इसी कश्मकश में क्रिकेट कब हमारे देश में धर्म बन गया, मुझे पता ही  नहीं चला। इसी तरह कुछ साल पहले अाइपीएल की चर्चा शुरु हुई तो मुझे फिर बड़ी हैरत हुई। मन में तरह - तरह के सवाल उठने लगे। आखिर यह कैसा खेल है, जिसमें खिलाड़ी की बोली लगती है। टीम देश के आधार पर नहीं बल्कि अजीबोगरीब नामों वाले हैं। यही नहीं इसके खिलाड़ी भी अलग - अलग देशों के हैं। लेकिन कमाल देखिए कि देखते ही देखते क्या अखबार औऱ क्या चैनल सभी अाइपीएल की खबरों से पटने लगे। जरूरी खबर रोककर भी अाइपीएल की खबर चैनलों पर चलाई जाने लगी। यही नहीं कुछ दिन पहले कोलकाता नामधारी एक टीम के जीतने पर वहां  एेसा जश्न मना मानो भारत ने ओलंपिक में कोई बड़ा  कारनामा कर दिखाया हो। करोड़ों में खेलने वाले इसके खिलाड़ियों का यूं स्वागत हुआ मानो वे  मानवता पर उपकार करने वाले कोई मनीषी या देश औऱ समाज के लिए मर - मिटने वाले वीर - पुरुष हों। एक तरफ जनता लाठियां खा रही थी, दूसरी तरफ मैदान में शाहरूख  और जूही ही क्यों तमाम नेता - अभिनेता  और अभिनेत्रियां नाच रहे थे। पैसों के बगैर किसी को अपना पसीना भी नहीं देने वाले अरबपति खिलाड़ियों को महंगे उपहारों से पाट दिया गया। इस मुद्दे पर राज्य व देश में बहस चल ही रही है। लिहाजा इसमें अपनी टांग घुसड़ने का कोई फायदा नहीं। लेकिन मुझे लगता है कि ठंडा यानी शीतल पेय हो किक्रेट या फिर अाइपीएल। यह क्षमता व पूंजी की ताकत ही है, जो अनहोनी को भी होनी करने की क्षमता रखती है। पता नहीं भविष्य में यह ताकत देश में और क्या - क्या करतब दिखाए। 
तारकेश कुमार ओझा

Monday 14 April 2014

मुद्दा वही जो वोट दिलाए ...!!

भाजपा के साथ केंद्ग में राजसुख भोग चुके अजीत सिंह यदि नरेन्द्र मोदी को समंदर में फेंकने की बात करते हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी महज सात प्रशासनिक अधिकारयों के तबादले से बिफर कर चुनाव आयोग से टकराव मोल लेती है और उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री आजम खान यदि  कारगिल युद्ध में जान गंवाने वाले वीरों की शहादत को भी धर्म से जोड़ कर देखते हैं तो क्या इसलिए कि वे नामसझ हैं। उन्हें इसकी जनता में होने वाली अच्छी - बुरी प्रतिक्रिया का भान नहीं है। बिल्कुल नहीं। दरअसल अपने - अपने क्षेत्र के इन घुटे हुए  नेताओं के इस पासे के पीछे उनकी  सोची - समझी चाल है। जो मुख्य रूप से वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित हैं। हमारे राजनेताओं को उचित - अनुचित और शोभनीय - अशोभनीय से कोई मतलब नहीं है। उनके लिए  मुद्दा वही जो उन्हें वोट दिला सके। चाहे इसके लिए तामिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता को जेलों में बंद पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की माफी का पासा ही क्यों न फेंकना पड़े। यदि हम बात दल - बदल की राजनीति के पुरोधा अजीत सिंह की  करें, तो मोदी को समंदर में फेंकने के उनके पासे के पीछे उनका वोट बैंक का गणित है। उनके निर्वाचन क्षेत्र में जाट और मुस्लिम मतदाता निर्णायक माने जाते हैं। जनाब ने जाटों के अारक्षण का रास्ता साफ कर एक वोट बैंक में पहले ही सेंधमारी कर ली थी। अब मुस्लिमों को लुभाने की बारी थी। लिहाजा मोदी को समंदर में फेंकने की बात कह उन्हें खुश करने की कोशिश की। हालांकि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि कल को केंद्र में  मोदी की सरकार बने तो अजीत सिंह उन्हीं के मंत्रीमंडल की शोभा बढ़ाते नजर आ जाएं। यही हाल उत्तर प्रदेश के आजम खान का  भी है। मौका चुनाव का है, तो मुस्लिमों का रहनुमा बनने का इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता है कि जाबांज सैनिकों की शहादत की ही मजहबीकरण कर दिया जाए। आजम के राजनीतिक गुरु मुलायम सिहं यादव को भी इससे क्या एेतराज हो सकता है यदि मुजफ्फरनगर दंगे से नाराज मुस्लिम मतदाता किसी भी उपाय से उनके पाले में चले आएं। चाहे इसके लिए सैनिकों की शहादत से ही खिलवाड़ क्यों न करना पड़े। अब देखते हैं कि मुस्लिम मतदाता कैसे दूसरे पाले में जाते हैं। रही बात पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की। तो एेन चुनाव से पहले उन्हें अपनी लड़ाकू छवि को चमकाने के लिए किसी विलेन की आवश्यकता थी। सूबे में अब कांग्रेस - माकपा दोनों लुंज - पुंज हालत में है। भाजपा का कोई खास अाधार है नहीं। सो आखिर वे किससे लड़ती। लिहाजा चुनाव आयोग से ही टकराव मोल ली। कार्यकर्ताओं औऱ जनता में संदेश चला गया कि ममता बनर्जी अब भी पीड़ित है। उनके लिए लड़ रही है।  यह और बात है कि कभी विरोधी नेत्री होते हुए अायोग के हक में वे तत्कालीन कम्युनिस्ट सरकार से लड़ चुकी है। लेकिन हालात बदले तो किरदार को भी बदलना ही था। इसीलिए कहा गया है ... यह राजनीति है ... इसमें सब जायज है....
तारकेश कुमार ओझा

Thursday 10 April 2014

क्या बुढ़ापे में चक्रव्यूह का भेदन कर पायेंगे सपा प्रमुख



आजमगढ़ संसदीय सीट से चुनावी समर में उतरे सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह यादव जाति के भीतर जाति के चक्रव्युह में उलझते नजर आ रहे है। गुरू व चेले के मध्य हो रहे काफी रोचक संघर्ष में जाति के भीतर जाति का दांव न सिर्फ सपाई रणनीतिकारों की पेशानी पर बल डाल रहा हैए बल्कि माई समीकरण भी बिखराव की ओर है। भाजपा प्रत्याशी रमाकान्त यादव के साथ.साथ बसपा व कौमी एकता फैक्टर भी निष्कंटक राह मे रोड़े अटका रहा है। ऐसे में वाराणसी से नरेन्द्रमोदी के चुनाव लड़ने की घोषणा होते ही आजमगढ़ से चुनाव लड़ने का एलान कर सपा सुप्रीमों ने बड़ा दांव तो चला लेकिन सियासत की बिसात पर यह दांव व रणनीति पूर्वाचल में बहुत हद तक अभी परवान नहीं चढ़ सकी है। फौरी तौर पर बड़े कद का नेता होने की वजह से ही भाजपा के बाहुवली सांसद रमाकान्त यादव के मुकावले मुलायम सिंह यादव का पलड़ा भेले ही भारी नजर आ रहा हो लेकिन यहां उन्हें वाकओवर मिलता कों कत्तई नजर नहीं आ रहा है।
भाजपा प्रत्याशी के साथ साथ उन्हें बसपा प्रत्याशी एवं कौमी एकता फैक्टर से भी बड़ा खतरा है। मुस्लिम यादव समीकरण मुलायम सिंह की बड़ी ताकत है। आजमगढ़ उनके इस पुराने नुस्खे की तगड़ी जोर आजमाइश हो रही है। शायद यही वजह है कि चुनावी चक्रब्यूह में उलझे पिता के चुनाव की कमान सीएम बेटे अखिलेश सिंह यादव ने सम्भाल रखी है। बेहद उलझे सामाजिक समीकरणों वाले आजमगढ़ संसदीय क्षेत्र में सामाजिक ध्रुवीकरण कोई नया फैक्टर नहीं है। 1967 में डाण् राममनोहर लोहिया के समय के बाद आजमगढ़ समाजवादियों का गढ़ तो हो गया लेकिन रामजन्म भूमि आन्दोलन के बाद खासा उलझ भी गया। जिस सामाजिक समीकरण को लेकर समाजवादी पार्टी वजूद में आयी उस यादव और मुस्लिम वोट बैंक का ज्वलन्त नमूना आजमगढ़ है। आजमगढ़ में माई समीकरण बेहद मुफीद रहा है। 25 फीसद मुसलमान और 20 फीसद यादव मुलायम के लिए काफी मुफीद माना जाता रहा है। लेकिन 30 फीसद दलित अन्य 25 फीसद में सवर्ण व गैर यादव पिछड़ा वर्ग का भी वोट बेहद अहम रहा है। इसीलिए आजमगढ़ इलाके में बसपा भी दलित मुस्लिम कमेस्टी के सहारे परचम फहराने में सफल रही है।
साम्प्रदायिक रूप से बेहद ध्रुवीकृत की स्थिति में यादव के साथ ही उन्हें दलित का कुछ हिस्सा एवं अन्य वोट मिलता रहा है। लेकिन केन्द्र मे यादव ही रहा जिसके स्थानीय स्तर पर रमाकान्त यादव सबसे बड़े नेता माने जाते हैं। खास बात यह है कि रमाकान्त यादव न सिर्फ पहले सपा में ही रहे हैं बल्कि मुलायम सिंह यादव के चेले भी रहे हैं। इसलिए गुरू के हर दांव की काट भी उन्हें बखूबी मालूम हैं। वह 1996 0 1999 में सपा तथा 2004 में बसपा और 2009 में भाजपा के टिकट पर चुनाव भी जीत चुके हैं। चार चार बार सांसद रहे रमाकान्त पांचवीं बार संसद पहुंचने के लिए पूरी प्रतिष्ठा एवं ताकत लगाये हुए हैं। माहौल कुछ ऐसा रहा कि साम्रप्रदायिक ध्रुवीकरण के चलते यादव के साथ गैर मुस्लिम वोट हासिल कर रमाकान्त संसद पहुंते रहे हैं। इस दफा रमाकान्त यादव को तगड़ी चुनौती देने के लिए बसपा ने स्थानीय विधायक गुड्डू जमाली को टिकट थमाया है। मुलायम सिंह यादव के आने के पहले तक रमाकान्त यादव एवं जमाली में ही सीधी भिड़न्त हो रही थी। लेकिन मुलायम सिंह यादव के मैदान में उतरने से लड़ाई काफी दिलचस्प हो गयी है।
यादव मतदाता का जाहिर तौर पर झुकाव मुलायम सिंह यादव की तरफ है। लेकिन ज्यादातर अब भी भ्रमित हैं। जिसकी वजह यहां जाति के भीतर ही जाति का हो रहा संघर्ष है। आजमगढ़ में दो यादव उपजातियां धड़ौर व ग्वाल हैं। मुलायम धड़ौर है तो रमाकान्त यादव ग्वाल हैं। खास बात यह है कि आजमगढ़ में ग्वालों की संख्या काफी अधिक है। मुलायम सिंह यादव का पूरा गणित यादव व मुस्लिम वोट बैंक पर ही टिका है। माना जाता रहा है कि मतदान तक यादवों का बड़ा हिस्सा उनके पास जायेगा लेकिन असली सफलता मुस्लिमों के रूख से पैदा होगी। सपा के लिए मुजफ्फर नगर दंगों का कलंक एवं सुप्रीमकोर्ट द्वारा भी लापरवाही के लिए प्रदेश सरकार को जिम्मेदार ठहराने के बाद लगा झटका एवं बसपा के विधायक गुड्डू जमाली और कौमी एकता पार्टी तथा अन्य छोटी.छोटी सियासी पार्टियां भी मुलायम सिंह यादव के लिए चुनौती पैदा कर रही हैं।
बाहुबली विधायक मुख्तार अंसारी की कौमी एकता का नारा है हम सीट नहीं पहचान के लिए लड़ते हैं। जमाली और कौमी एकता को भी यदि मुस्लिमों का वोट मिला तो मुलायम सिंह यादव के लिए चुनौती काफी गहरा सकती है। शायद यही वजह है कि मुलायम सिंह को यह भरोसा भी देना पड़ रहा है कि वह जीते तो इस इलाके को छोड़कर नहीं जायेंगे। क्योंकि चर्चा यह भी है कि नेता जी जीतेंगे तो मैनपुरी सीट को कायम रख यहां से अपने दूसरे बैटे प्रतीक यादव को चुनाव लड़ायेंगे। वैसे भी पहले से ही आजमगढ़ से प्रतीक यादव को चुनाव लड़ाये जाने की मांग हो रही थी। लेकिन सपा ने पहलें मंत्री बलराम यादव फिर फिर सपा जिलाध्यक्ष हवलदार यादव को अपना उमीदवार घोषित किया था।
अब तीसरी बार हुए बदलाव में खुद सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव उम्मीदवार के रूप में मैदान में हैं। जहां जाति के भीतर ही जाति के चक्रव्यूह में उलझते नजर आ रहे हैं। उनका माई समीकरण भी यहां सियासत की कसौटी पर कसा जा रहा है। वैसे भी आजमगढ़ से सटी ज्यादातर सीटों पर बसपा एवं भाजपा ही काबिज है। लालगंजए जौनपुरए सन्तकबीरनगरए अम्बेडकरनगर आदि सीटों पर बसपा का कब्जा है। ऐसे में भाजपा के कब्जे वाली सीट सपा की झोली में डालना सपा मुखिया के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। फिलहाल पूर्वांचल की अन्य सीटों पर प्रभाव डालने की रणनीति असरकारी होती नहीं दिखाई पड़ रही है। लेकिन यह चुनाव है। अभी कितने समीकरण बनेंगेए बिगड़ेंगे। किसी तरह की भविष्य करना जल्दबाजी होगा। वैसे प्रबुद्धवर्गीय लोगों का कहना है कि क्या इस उम्र में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव महासमर. 2014 में चक्रव्यूह का भेदन कर पायेंगे 

Thursday 27 March 2014

अम्बेडकरनगर: गुटबाजी के भंवर जाल में उलझी भाजपा

मुरझाये कमल की शिरा और धमनियों में रवानी भरने में जुटी भाजपा एवं पार्टी के 272 प्लस के मिशन को उम्मीदवारों के खिलाफ अपनों की हो रही बगावत ने कमल खिलने से पहले ही मुरझाने के संकेत देने शुरू कर दिये हैं। नख से लेकर सिर तक गुटबाजी के भंवर जाल में उलझी भाजपा का अर्न्तकलह प्रत्याशियों के नामों के एलान के साथ सड़कांे पर सामने आ रहा है। पार्टी का अनुशासन तरनतार करने एवं मर्यादा की सीमाएं लाघने से लोग गुरेज नहीं कर रहे हैं। जिसके कारण कीचड़ में खिलने वाला कमल यहां कलह में डूबता नजर आ रहा है। अविभाजित फैजाबाद का हिस्सा रहे अम्बेडकरनगर संसदीय सीट से भाजपा ने डॉ0 हरिओम पाण्डेय को अपना उम्मीदवार घोषित किया है। लेकिन हरिओम पाण्डेय को टिकट के दावेदारों में सुमार रहे लोग पचा नहीं पा रहे हैं। एक धड़ा तो मुखर होकर सड़क पर उतरकर हरिओम की मुखालफत कर रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी ने अम्बेडकरनगर संसदीय क्षेत्र से फायर ब्रांड नेता राज्यसभा सदस्य विनय कटियार को मैदान में उतारा था। विनय कटियार को चुनाव में कामयाबी तो नहीं मिल पायी लेकिन उन्होनें कार्यकर्ताओं को एकजुट कर चुनावी समां भी बॉध दिया था। इस बार भी कार्यकर्ता विनय कटियार को प्रत्याशी बनाये जाने की मांग कर रहे थे लेकिन स्वयं कटियार फैजाबाद से चुनावी समर में उतरना चाह रहे थे। फैजाबाद से पार्टी ने पूर्व मंत्री लल्लू सिंह को तीसरी बार मैदान में उतार दिया। लिहाजा कटियार की फैजाबाद से उम्मीदवारी पर विराम लग गया फिर उनके अम्बेडकरनगर से उतरने के कयास लगने लगे। लेकिन पार्टी ने जब अम्बेडकरनगर सीट पर प्रत्याशी का एलान किया तो कार्यकर्ता हतप्रभ रह गये। पार्टी ने हरिओम पाण्डेय को उम्मीदवार घोषित कर दिया। जिनका मुखर विरोध भी शुरू हो गया। पिछले दो वर्षों से जिले की राजनीति में खासा सक्रिय श्री राम जन्मभूमि न्यास समिति के वरिष्ठ सदस्य एवं पूर्व सांसद राम बिलास वेदान्तीए पूर्व मंत्री अनिल तिवारीए भाजपा जिलाध्यक्ष राम प्रकाश यादवए पूर्व जिलाध्यक्ष डॉ0 राजितराम त्रिपाठीए रमाशंकर सिंहए भारती सिंहए अमरनाथ सिंहए इन्द्रमणि शुक्लए शिवनायक वर्माए भीम निषादए हिन्दु युवा वाहिनी जिलाध्यक्ष सूर्यमणि यादव सहित कई अन्य प्रमुख नेताओं एवं भाजपा प्रदेश कार्य समिति सदस्य राम सूरत मौर्य आदि की दावेदारी को दरकिनार कर दिया गया जिसके कारण असंतोष मुखर होना भी लाजिमी है। टिकट नहीं मिलने से नाराज राम बिलास वेदान्ती तो इस कदर आग बबूला हो उठे हैं कि वह भाजपा को अलविदा कहने का भी मन बना चुके हैं। सूत्रों की माने तो पूर्व सांसद राम बिलास वेदान्ती सपा में शामिल होकर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के विरूद्ध लखनऊ से चुनावी समर में उतर सकते हैं। ज्यादातर कार्यकर्ताओं का मानना है कि पार्टी को अम्बेडकरनगर से किसी बड़े कद के नेता को मैदान में उतारना चाहिए। जिले के आलापुर सु0 विधानसभा क्षेत्र को अपने आप में समेटने वाली संत कबीर नगर संसदीय सीट पर तो दावेदारों की लम्बी फेहरिश्त के कारण भाजपा नेतृत्व अभी तक प्रत्याशी के नाम का एलान नहीं कर पाया है वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने यहां पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डा0 रमापति राम त्रिपाठी के पुत्र शरद त्रिपाठी को मैदान में उतारा था। लेकिन शरद त्रिपाठी को कामयाबी नहीं मिल पायी। शरद त्रिपाठी को दूसरे स्थान पर रहकर ही संतोष करना पडा था। लिहाजा इस बार भी शरद त्रिपाठी का दावा काफी मजबूत है लेकिन पूर्व सांसद इन्द्रजीत मिश्रए अष्टभुजा शुक्ला एंव पूर्व मंत्री शिव प्रताप शुक्ला जैसे कद्दावर नेताओं की दावेदारी ने पार्टी नेतृत्व को उलझन में डाल दिया है। अभी तक पार्टी कोई निर्णय नहीं कर पायी है। सूत्रों की माने तो पार्टी नेतृत्व यहंा पर राष्ट्रीय उपाध्यक्षए मुख्तार अब्बास नकवी या फिर पूर्व मुख्यमंत्री स्व0 वीर बहादुर सिंह के पुत्र जो हाल ही में भाजपा में शामिल हुए हैं। उनमें से किन्हीं एक को मैदान में उतारा जा सकता है। कार्यकर्ता शरद त्रिपाठी या फिर पूर्व मंत्री शिव प्रताप शुक्ल को प्रत्याशी बनाने की मांग कर रहे हैं। यदि किसी बड़े नेता को मैदान में नहीं उतारा गया तो शरद त्रिपाठी का उतरना तय माना जा रहा है लेकिन एलान बिलम्ब ने कार्यकर्ताओं को बेचैन कर दिया है। ऐसे में मिशन 272 प्लस के पूरा होने में खलल पैदा हो सकता है।
रीता विश्वकर्मा

Wednesday 26 March 2014

विवाद का जाल

भारत और श्रीलंका के बीच एक दूसरे के मछुआरों की गिरफ्तारी को लेकर जब-तब खटास उभर आती है। यह अच्छी बात है कि दोनों देशों ने इस तनाव को खत्म करने की दिशा में पहल की है। पिछले हफ्ते श्रीलंका ने बुधवार को एक सौ सोलह, गुरुवार को चैबीस और इसके अगले रोज बत्तीस भारतीय मछुआरों को रिहा कर दिया। उनकी जब्त की हुई नावें भी लौटा दीं। इसी तरह का कदम तमिलनाडु सरकार ने भी उठाया। दोनों तरफ से दिखाए गए इस सौहार्द ने मछुआरा प्रतिनिधियों के स्तर पर होने वाली बातचीत का रास्ता साफ कर दिया है। उनकी बैठक तेरह मार्च को होनी थी। मगर तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने साफ कर दिया था कि इस सिलसिले में कोई भी बातचीत तभी होगी जब श्रीलंका सभी भारतीय मछुआरों को छोड दे। जो बैठक तेरह मार्च को नहीं हो सकी, नए घटनाक्रम के बाद, अब अगले हफ्ते होगी। आम चुनाव के मद््देनजर यह मसला तमिलनाडु के लिए और भी संवेदनशील हो गया है। सवाल यह है कि क्या दोनों तरफ के मछुआरों को गिरफ्तारी और उत्पीडन से बचाने की चिंता स्थायी समाधान की शक्ल ले पाएगी? जनवरी में श्रीलंका के मत्यपालन एवं जल संसाधन मंत्री राजित सेनारत्ने भारत आए थे। कृषिमंत्री शरद पवार से उनकी बातचीत हुई और यह सहमति बनी कि मछुआरों की सुरक्षा का प्रश्न जल्द से जल्द सुलझाया जाए। लेकिन इसके बाद भी मछुआरों की गिरफ्तारी का क्रम जारी रहा। ऐसा दोनों तरफ से होता रहा है। उनका गुनाह बस यह होता है कि अपनी आजीविका के सिलसिले में वे जाने-अनजाने समुद्री सीमा लांघ जाते हैं और बंदी बना लिए जाते हैं। तटरक्षक बल उनके साथ मनमाना सलूक करते हैं। न उनके मानवाधिकारों की फिक्र की जाती है न उन्हें कानूनी मदद मिल पाती है। श्रीलंका और भारत के कूटनीतिक रिश्तों में कुछ बरसों से वहां के तमिलों के पुनर्वास और मानवाधिकारों का सवाल प्रमुख रहा है। विडंबना यह है कि मछुआरों से जुडे मामले में दोनों तरफ पीडित लोग तमिल समुदाय के ही होते हैं। श्रीलंका में चले गृहयुद्ध के दौरान उत्तर पूर्वी प्रांत के लोगों के लिए समुद्र में मछली पकडना मुश्किल हो गया थाय श्रीलंकाई नौसेना उन्हें कुछ सौ मीटर से आगे जाने ही नहीं देती थी। लेकिन अब उनकी शिकायत रहती है कि भारतीय मछुआरे अक्सर उनकी सीमा में घुस आते हैं और मछली पकडना शुरू कर देते हैं। इस आरोप को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर, तमिलनाडु के मछुआरों का कहना है कि यह उनका परंपरागत व्यवसाय है और इस पर कोई बंधन नहीं रहा है। लेकिन तब मशीनी नौकाएं और बडे जाल नहीं होते थे। ट्रालरों के बढते गए चलन ने गहरे समुद्र में भी मत्स्य संपदा को तेजी से खाली करना शुरू कर दिया। विवाद को सुलझाने की प्रक्रिया में दोनों तरफ के मछुआरा संगठनों के नुमाइंदों को शामिल करना स्वागत-योग्य है, पर इसका ठोस नतीजा तभी निकल सकता है जब नियमन के कुछ उपाय किए जाएं। ट्रालरों पर रोक लगे और टकराव से बचने के लिए दोनों तरफ से मछली पकडने के दिन तय हों। समुद्री सीमा के अतिक्रमण की शिकायतों को संप्रभुता का उल्लंघन न मान कर मानवीय नजरिए से सुलझाया जाए। भारत और पाकिस्तान के भी मछुआरे हर साल सैकडों की संख्या में बंदी बना लिए जाते हैं और सीमापार की जेलों में सडते रहते हैं। जब भारत और पाकिस्तान को सौहार्द का कूटनीतिक संदेश देने की जरूरत महसूस होती है, एक तरफ से कुछ मछुआरों को रिहा करने की घोषणा होती है और फिर दूसरी तरफ से भी। लेकिन यह मानवीय मसला है। इसलिए इसे कूटनीतिक गरज से नहीं, मानवाधिकारों के नजरिए से देखा जाना चाहिए।



Monday 17 March 2014

दलबदल का सिलसिला


राजनीति में कोई किसी का स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता, यह बात पहले न जाने कितने बार साबित हो चुकी है। लेकिन चुनावों के नजदीक आते ही मित्रता, शत्रुता के समीकरण जिस तेजी से बदलते हैं, उसे देखकर आश्चर्य होता है। विचारधारा नाम की जो अवधारणा बनाई गई है, वह राजनीतिक दलों और चुनावी उम्मीदवारों के संदर्भ में एकदम खोखली नजर आती है। राजनेता एक खेमे से दूसरे खेमे में जाने का प्रचलन तब से चला आ रहा है, जब से राजनीति हो रही है, इस लिहाज से इसे मानव की मूलभूत प्रवृत्तियों में एक माना जाना चाहिए। भारत में जब राजनीतिक लाभ या पद के लोभ में दलबदल की प्रवृत्ति बेलगाम दिखने लगी, तो इसे रोकने के लिए कानून बना। अब कम से कम इतना है कि नेता जल्दी-जल्दी पाला नहीं बदलते, अन्यथा संसद या विधानसभा की सदस्यता खत्म होने का खतरा रहता है। लेकिन चुनावों के वक्त इतना डर नहीं रहता। लिहाजा ठाठ से जिसे, जहां, जैसी सुविधा, लाभ मिले, वहां वह चले जाए। इस बार के चुनाव यूं तो कई मायनों में खास होने जा रहे हैं, मसलन सबसे लंबी अवधि में होने वाले चुनाव, मतदाताओं की अधिक संख्या, पहले से प्रधानमंत्री प्रत्याशी घोषित कर व्यक्ति आधारित चुनाव लडने की परिपाटी डालना, इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ सोशल मीडिया का बोलबाला, कांग्रेस, भाजपा के अलावा आम आदमी पार्टी का दिनोंदिन बढता जोर, तीसरे मोर्चे के साथ-साथ चैथे मोर्चे के लिए जमीन तलाशना यह सब हो रहा है। लेकिन सबसे रोचक है नेताओं का एक दल से दूसरे दल में जाना या गठबंधन करना या सीटों का अघोषित समझौता करना। धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, समाजवाद, पूंजीवाद, क्षेत्रीयता सबका एक दूसरे में इस कदर घालमेल हो गया है कि किसी का भी असली चेहरा पहचानना कठिन है, विचारधारा तो दूर की बात है। अमूमन टिकट न मिलने पर लोग नाराज होते हैं और दूसरी पार्टी में चले जाते हैं। यूं तो कई नामी-गिरामी लोगों ने इस बार भाजपा की सदस्यता ग्रहण की है, लेकिन टिकट और सीटों को लेकर भीतर जैसा तूफान मचा हुआ है, उससे भाजपा के लोग भी डरे हुए हैं कि न जाने क्या हो जाए। आयाराम, गयाराम की यह कहानी रोज समाचारों में आ रही है, आज उसने फलां पार्टी की सदस्यता ले ली, आज उसने फलां दल को छोड दिया। चुनाव होने और नयी सरकार बनने तक, आने-जाने का यह तमाशा जनता के लिए पेश होता रहेगा।

Friday 14 March 2014

मौत में उम्मीद...!!


मौत तो मनुष्य के लिए सदा - सर्वदा भयावह और डरावनी रही है। भला मौत भी क्या किसी में उम्मीद जगा सकती है... बिल्कुल जगा सकती है। इस बात का भान मुझे अपने पड़ोस में दारुण पीड़ा झेल रही एक  गाय का हश्र देख कर हुआ। हमारे देश में गौ  हत्या और गौ रक्षा शुरू से ही बड़ा संवेदनशील मसला रहा है। इसके बावजूद यह सच है कि अपने देश में प्रतिदिन हजारों गायें तस्करी के रास्ते कत्लखाने पहुंच जाती है। वहीं यह भी सच है कि भारतीय संस्कृति व समाज में गाय का आज भी विशेष और महत्वपूर्ण स्थान है। चरम आधुनिकता के दौर में भी देश में अनेक ऐसे परिवार है, जिनके लिए गाय आज भी माता है। लेकिन यह भी विडंबना ही है कि जिस गौ को माता कह कर हम पूजते हैं, उसके सामान्य इलाज की व्यवस्था भी विज्ञान की बुलंदियां चूम रहा हमारा समाज नहीं ढूंढ पाया है। या शायद हम इसकी जरूरत महसूस नहीं करते। दरअसल  मेरे मोहल्ले की एक गाय कुछ दिन पहले निर्माणाधीन मकान के पास बनाए गए गड्ढे में गिर गई थी। तमाम कोशिशों के बाद उसे किसी प्रकार बाहर निकाला गया। लेकिन तब तक उसकी रीढ़ की हड्डी में फ्रैक्चर हो गया  था। शहर के चुनिंदा पशु चिकित्सकों से संपर्क कर गाय का इलाज शुरू हुआ। लेकिन शुरूआती दौर में ही डाक्टरों ने स्पष्ट कर दिया कि हड्डी का ज्वाइंट खुल गया है, दो एक डोज में यदि गाय रिकवर कर ले, तो ठीक, वर्ना कुछ नहीं किया जा सकता। चूंकि गाय को मरीज की तरह बेड पर लिटा कर नहीं रखा जा सकता, इसलिए उसकी टूटी हड्डी का प्लास्टर भी संभव नहीं। आखिरकार वहीं हुआ, जिसका डर था। भीषण ठंड में मूक गाय दर्द से बेहाल होने लगी। असहज होकर वह बार - बार उठने की कोशिश करती, लेकिन इस प्रयास में उसे और चोट लगती। जो उसकी पीड़ा को और बढ़ाता जाता। लेकिन कुछ नहीं किया जा सकता था। उसकी सांघातिक पीड़ा की यह शुरूआत थी। रात - दिन दर्द से छटपटाते रहने के बाद सामने खड़ी थी, उसकी तिल - तिल कर भयावह मौत। स्पष्ट था कि एक ही स्थान पर पड़े रहने के चलते उसके चमड़े व शरीर के दूसरे हिस्सों  में सड़न पैदा होंगे। जिससे असह्य बदबू फैलेगी। भीषण कष्टों के साथ गाय की दर्दनाक मौत का साक्षी बनने की कल्पना से ही पशुपालक परिवार सिहर उठा। भुक्तभोगियों की सलाह पर आखिरकार मौत में ही उम्मीद दिखाई दी। और दिल पर पत्थर रख कर पालकों ने उसे कसाई के हवाले कर दिया। अपने सहायकों के साथ पहुंचा कसाई लाद - फांद कर मरणासन्न गाय को एक वाहन पर पटक कर उसके अंजाम तक पहुंचाने निकल पड़ा। ऐसा नहीं था कि गाय पालने वाला परिवार इससे मर्माहत नहीं था। परिवार के छोटे - बड़े सारे सदस्यों की आंखों में आंसू थे। लेकिन नियति के आगे सभी विवश थे। क्योंकि मौत ही उस मूक पशु को इस दारुण कष्ट से मुक्ति दिला सकती थी। समाज की जरूरतों के लिहाज से एक छोटे से कस्बों में भी सैकड़ों गायों की जरूरत होती है। लेकिन कस्बा या शहर तो छोड़िए , बड़े नगरों में भी जानवरों के योग्य चिकित्सक व  पशु चिकित्सालय नहीं है। आखिर यह वैज्ञानिक प्रगति है कि मानव क्लोन बनाने में जुटा विज्ञान एक बेजुबान पशु की टूटी हड्डी न जोड़ सके। पशु सुरक्षा व अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले तमाम स्वयंसेवी संगठनों का ध्यान भी शायद अब तक इस त्रासदी की ओऱ नहीं गया है। आवश्यकता के चलते गायें आज भी पाली जा रही है। लेकिन एक विडंबना यह कि गाय से उत्पन्न बछड़ों को आज कोई अपनाने को तैयार नहीं। यहां तक कि चुनिंदा गौशालाएं भी। इसकी वजह शायद समय के साथ बैलों की उपयोगिता का खत्म होते जाना है। ऐसे में सैकड़ों बछड़े लावारिस इधर - उधर भटकने को मजबूर हैं। तारकेश कुमार ओझा,

Monday 10 March 2014

चुनाव खर्च

सरकार ने चुनाव खर्च की सीमा बढाने का निर्वाचन आयोग का प्रस्ताव मान लिया है। जाहिर है, इस फैसले से चुनाव लडने के इच्छुक लोगों ने राहत की सांस ली होगी। अभी तक चुनाव खर्च की सीमा लोकसभा उम्मीदवार के लिए चालीस लाख और विधानसभा उम्मीदवार के लिए सोलह लाख रुपए थी। इसे बढाने की मांग काफी समय से होती रही है। पखवाडे भर पहले निर्वाचन आयोग ने इस संबंध में कानून मंत्रालय को पत्र लिखा था। अब लोकसभा उम्मीदवार के लिए खर्च की सीमा सत्तर लाख कर दी गई है। अलबत्ता गोवा, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम जैसे छोटे राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों अंडमान निकोबार, चंडीगढ, दादरा एवं नगर हवेली, दमन एवं दीव, पुदुच्चेरी और लक्षद्वीप में लोकसभा उम्मीदवार के लिए बढी हुई खर्च सीमा चैवन लाख रुपए होगी। इसी तरह असम को छोड कर पूर्वोत्तर और पुदुच्चेरी में विधानसभा उम्मीदवार अब बीस लाख रुपए तक खर्च कर सकेंगे, जबकि बाकी देश में विधानसभा प्रत्याशियों को 28 लाख रुपए तक खर्च कर सकने की इजाजत होगी। खर्च-सीमा बढाने के पीछे कई तर्क थे। एक यह कि मतदाताओं की संख्या बढी है और इसी के साथ मतदान केंद्रों की भी। दूसरे, प्रचार सामग्री सहित तमाम चीजों की लागत बढ गई है। पर सवाल यह है कि क्या इस बढी हुई खर्च-सीमा के बाद चुनाव प्रचार में पारदर्शिता आएगी और उम्मीदवार अपने खर्चों का सही ब्योरा देंगे? इसकी उम्मीद बहुत कम है। पिछले साल भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया था कि 2009 के चुनाव में उन्होंने आठ करोड रुपए खर्च किए थे। इस पर आयोग ने उन्हें नोटिस जारी किया। पर इससे अधिक कोई कार्रवाई नहीं हुई। दरअसल, हर कोई जानता है कि मुंडे अपवाद नहीं थे, अधिकतर प्रत्याशियों का चुनावी खर्च उससे कई गुना होता है जितना वे आयोग को लिखित रूप में बताते हैं। ऐसे भी लोग होंगे जिन्होंने मुंडे से भी अधिक खर्च किया होगा। अगर वे सही हिसाब दें, जो कि निर्धारित सीमा से अधिक होगा, तो जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (6) के उल्लंघन के दोषी माने जाएंगे। इसलिए चंद प्रत्याशी ही वास्तविक ब्योरा देते होंगे। पर मुददा उम्मीदवारों का ही नहीं, पार्टियों की तरफ से होने वाले खर्च का भी है। पार्टियों के लिए खर्च की कोई हदबंदी नहीं है। इसका फायदा उठा कर बहुत सारा व्यय पार्टियों के हिस्से में दिखा दिया जाता है। फिर, प्रत्याशियों के लिए व्यय-सीमा का प्रावधान चुनाव घोषित होने के बाद लागू होता है। जबकि व्यवहार में चुनाव प्रचार उसके काफी पहले से शुरू हो जाता है। हालाकि चुनाव घोषणा के पूर्व से ही   रैलियों, पोस्टरों-बैनरों और विज्ञापनों पर अंधाधुंध  खर्च जारी है। ऐसे में उम्मीदवारों के लिए अधिकतम खर्च की मर्यादा बहुत मायने नहीं रखती।
अगर कोई दल या उम्मीदवार सादगी से अपना प्रचार अभियान चलाना चाहता और अपने खर्चों का सही ब्योरा देने को तैयार है तो उसके लिए जरूर नई व्यय-सीमा मददगार साबित होगी। लेकिन ज्यादातर मामलों में नए फैसले से भी कोई फर्क नहीं पडेगा। वास्तविक व्यय और आयोग को दिए जाने वाले हिसाब में भारी फर्क का सिलसिला चलता रहेगा। यों राजनीतिक दल यह दावा करते रहे हैं कि सारा खर्च वे अपने सदस्यों और समर्थकों से मिले चंदों से उठाते हैं। लेकिन असज कुछ ओर ही होता है। हमारी राजनीति के संचालन में काले धन की भूमिका होने की भी बात कही जाती है। दुनिया के अनेक देशों में पार्टियों के लिए अपने सारे चंदे का स्रोत बताना कानूनन अनिवार्य है। भारत में भी ऐसा किया जाना चाहिए। चुनाव सुधार के लिए समय-समय पर बनी समितियों ने बहुत-से मूल्यवान सुझाव दिए हैं। पर उनकी सिफारिशें धूल खा रही हैं। उनके सुझावों पर कब विचार होगा?

Thursday 6 March 2014

महानायक की महामजबूरियां ......!!

सहारा इंडिया प्रकरण से अपने जनरल नालेज में यह जानकर एक और इजाफा हुआ कि अपने महानायक यानी बिग बी यानी अमिताभ बच्चन जिन लोगों के एहसानों तले दबे हैं, उनमें सहारा इंडिया के सहाराश्री यानी सुब्रत राय सहारा भी शामिल हैं। अभी तक हम यही जानते थे कि महानायक केवल अपने छोटे भैया यानी अमर सिंह के एहसानों तले ही दबे हैं। खुद अमिताभ ने तो कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन अमर सिंह ने हताशा में कई बार कहा कि ,यदि वे नहीं होते तो सदी का यह महानायक मुंबई की सड़कों पर टैक्सियां चला रहा होता.। बकौल अमर सिंह यह स्वीकारोक्ति खुद बच्चन साहब की है। सहारा प्रकरण के जरिए चैनलों पर जो फुटेज चली उसमें साफ दिखाई देता है कि सहाराश्री के किसी समारोह में बच्चन साहब अपने पूरे परिवार के साथ न सिर्फ खुद ठुमके लगा रहे हैं. बल्कि अपने बेटे अभिषेक को भी नाचने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। इसी बहाने यह खुलासा हुआ कि बच्चन साहब पर एहसान करने वालों में सहाराश्री भी शामिल है। चैनलों पर बार - बार दिखाए गए फुटेज से भी इस बात की पुष्टि होती है कि सचमुच बिग बी उनके कायल थे। अन्यथा किसी की खुशी में कोई भला इस कदर नाचता है क्या । वैसे नाचने वालों में तो कई और दिग्गज  हस्तियां भी चैनलों पर दिखाई पड़ी । जो बगैर पैसों  के शायद अपना पसीना भी किसी को न देते हों। हालांकि यह खुलासा नहीं हो सका कि उन हस्तियों पर सहाराश्री ने कोई एहसान किया था या नहीं। कई बार खबर देखते समय चैनलों पर अक्सर दाऊद इब्राहिम का जिक्र हो आता है। इस दौरान कई बार चैनलों पर दिखाई दिय़ा कि दाऊद के बाल - बच्चों के शादी - ब्याह या जन्म दिन बगैरह पर बालीवुड के कई हस्तियां ने नाचा - गाया औऱ खुशियां मनाई। कुछ कलाकारों ने स्वीकार भी किया कि वे दाऊद इब्राहिम के कार्यक्रम में गए थे। अपनी सफाई में उन्होंने कहा कि वे कलाकार हैं, और पैसों के लिए कहीं भी चले जाते हैं। लेेकिन सहारा श्री बनाम बिग बी का यह मामला बिल्कुल नया है। क्योंकि सुब्रत राय सहारा के साथ उनकी नजदीकियां की ज्यादा चर्चा नहीं हो पाई थी। सब यही जानते हैं कि अमिताभ बच्चन की केवल अमर सिंह के साथ ही दांत - काटी रोटी का रिश्ता रहा है। इससे पहले अपने किशोरावस्था के दौरान हम सुनते थे कि अमिताभ बच्चन की नेहरु - गांधी परिवार के साथ  घनिष्ट संबंध हैं। लेकिन राजीव गांधी की मौत के बाद यह रिश्ता टूट गया। बाद में बिग बी मुलायम और अमर सिंह क नजदीक हो गए।  अब तक हम यही समझते थ कि साधारण लोगों के अापसी रिश्तों में ही उतार - चढ़ाव आता है। लेकिन सहाराश्री प्रकरण से यह साबित होता है कि बड़े - बड़े दिग्गजों को भी किसी न किसी के एहसान तले दबना पड़ता है। सदी का  महानायक हो या महा - आम आदमी -  जैसे कद का आदमी उस स्तर की उसकी  मजबूरियां .... । 

Tuesday 4 March 2014

नीतीशजी ! आप तो एेसे न थे...!!

कोलकाता से करीब 60 किलोमीटर पश्चिम में एक छोटा सा स्टेशन है दुआ। 1997 मे तत्कालीन रेल मंत्री के तौर पर  इस स्टेशन का उद्घाटन बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री  नीतीश कुमार ने किया था। कार्यक्रम के कवरेज के सिलसिले में देर तक नीतीश कुमार के साथ  रहने का अवसर मिला। वह जमाना लालू यादव का था।  लेकिन कुछ खासियतों के चलते मुझे नीतीश कुमार तब हिंदी पट्टी के बेहद सुलझे हुए नेता लगे थे। अपने गृह प्रदेश बिहार के लालू यादव के ठेठ देशी अंदाज के विपरीत नीतीश के व्यक्त्तिव  में गजब की सौम्यता थी। स्टेशन का उद्घाटन करने के साथ ही नीतीश ने रेलवे सुरक्षा बल जवानों के एक समारोह को भी संबोधित किया था। साधारणतः एेसे कायर्क्रमों में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थिति दर्ज कराते हुए रेल मंत्री जवानों के लिए इनामी  राशि व  तमाम लोकलुभावन घोषणाएं करते हैं। लेकिन परंपरा के विपरीत नीतीश कुमार ने इससे परहेज करते हुए केवल मुददे की बात कही। इससे मै इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि  हिंदी पट्टी से  और मंडल -कमंडल की राजनीति की उपज होने के बावजूद  नीतीश कुमार काफी सुलझे हुए हैं। 2005 में उनके बिहार का मुख्यमंत्री बनते - बनते रह जाने और फिर हुए उपचुनाव में भारी बहुमत से उनके मुख्यमंत्री बनने से लेकर 2011 में उनके दोबारा सत्तासीन होने तक नीतीश कुमार  के हर कदम व फैसले में परिपक्वता झलकती थी। हिंदी पट्टी के परंपरागत नेताओं के विपरीत अगड़ा - पिछड़ा और अल्पसंख्यक - बहुसंख्यक राजनीति से परहेज करते हुए नीतीश ने सुशासन बाबू की अपनी अच्छी - खासी पहचान बनी ली थी। जाति व धर्म के मुद्दे को छोड़ केवल सुशासन व विकास के मुद्दे पर लड़े गए चुनाव की वजह से तब मुझे बिहार सचमुच बदलता नजर आया था। क्योंकि पहली बार बिहार में हुए चुनाव में लालू के चर्चित माई समेत तमाम समीकरण ध्वस्त हो गए थे।   लेकिन अचानक नीतिश कुमार के  के फिर पुरानी लीक पर लौटने पर गहरा आश्चर्य हुआ। बेशक राजग या भाजपा से अलग होने का फैसला उनका व्यक्तिगत या दलगत मामला हो सकता है। लेकिन एेसा प्रतीत होता है कि  उनके इस कदम से किसी न किसी रूप में हिंदी पट्टी में मंडल - कमंडल और अल्पसंख्यक - बहुसंख्यक का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ  रहा है। नीतीश कुमार और उनके समर्थक मानें या न  मानें , लेकिन यह निश्चित है कि राष्ट्रीय जनता दल विधायकों को तोड़ने के कथित प्रयासों के चलते हाशिए पर पड़े लालू प्रसाद यादव को उन्होंने बेवजह ही सहानुभूित का पात्र बना दिया। इसी के साथ  उनकी साफ - सुथरी राजनीति की छवि को भी थोड़ा ही सही पर धक्का लगा है। क्या भारतीय राजनीति में मंडल - कमंडल,  अगड़ा - पिछड़ा या अल्पसंख्यक - बहुसंख्यक राजनीति से इतर राजनेता के उभरने की उम्मीद बेमानी है। इस बीच बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग पर उनकी पार्टी द्वारा बंद का आह्वान करना भी गले नहीं उतरा। चुनाव नजदीक आने पर ही नीतीश ने इस पर आक्रामकता क्यों दिखाई, और फिर विकास की बात करने वालों के मुंह से बंद की बात भी आम लोगों के गले नहीं उतरी। 
तारकेश कुमार ओझा

Friday 28 February 2014

रामविलास का भाजपा मिलाप!!



लोजपा नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के अपने परंपरागत मित्र लालू प्रसाद यादव या नीतिश कुमार के बजाय भाजपा का दामन थामने पर आश्चर्य भले ही व्यक्त किया जा रहा होए लेकिन इसके आसार बहुत पहले से नजर आने लगे थे। क्योंकि रामविलास पासवान के पास इसके सिवा कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था। लालू यादव के साथ गठबंधन का परिणाण वे एक बार भूगत चुके थे। नीतीश कुमार के साथ दोस्ती में भी उनके सामने जोखिम था। लिहाजा अवसरवादी राजनीति के जीवंत मिसाल रामविलास पासवान के लिए  12 साल बाद फिर राजग में लौटना ही सर्वाधिक सुविधाजनक था। वैसे भी रामविलास पासवान हमेशा धारा के साथ बहने में यकीन करते हैं। मंडल राजनीति की उपज पासवान यदि वीपी सिंह की अंगुली पकड़ कर राजनीति की पगडंडी पर चले,

 तो देवगौड़ा से लेकर गुजराल और वामपंथी दल और फिर एकदम यू टर्न लेते हुए वाजपेयी सरकार की शोभा बढ़ाने से भी नहीं हिचकिचाए। एेसे में भारत में घुसे अवैध बंगलादेशियों को भारत की नागरिकता देने की मांग कर चुके पासवान यदि फिर उसी भाजपा के साथ हो गएए जिसे वे पिछले 12 साल तक कोसते रहे, तो इस पर आश्चर्य कैसा। वैसे अवसरवादिता के लिए सिर्फ पासवान को ही क्यों दोष दिया जाए। एक राज्य की मुख्यमंत्री को पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों को जेल से रिहा करना जरूरी लगा क्योंकि इससे उसे अपने  प्रदेश में राजनैतिक फायदा मिलना तय है।  देशद्रोह व अन्य जघन्य अपराध में जेलों में बंद रहे पंजाब के भुल्लर और कश्मीर के अफजल गुरु के मामले में पंजाब और कश्मीर में लंबी राजनीतिक पारी खेली जा चुकी है । एक और महिला मुख्यमंत्री ने राजकाज संभालते ही मस्जिदों के इमामों के लिए मासिक भत्ते का एेलान कर दिया। यह जानते हुए भी सरकारी खजाने की हालत खराब हैए और इससे दूसरे वर्गों में भी एेसी मांग उठ सकती है।  बिहार के कथित सुशासन बाबू कहे जाने वाले मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को अचानक अपने प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने का सूझाए और लगे हाथ उन्होंने बंद का ऐलान भी कर दिया। क्योंकि आखिर लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें भी तो अपने तरकश में कुछ तीर सजाने हैं। केंद्र सरकार जल्द ही अपने कर्मचारियों के लिए वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने वाली हैए यह जानते हुए भी इससे सरकारी खजाने पर अरबों का बोझ बढ़ेगा , साथ ही देश में महंगाई और आर्थिक असमानता भी भयंकर रूप से बढ़ेगी। लेकिन सरकार मजबूर है क्योंकि सरकार चलाने वालों को जल्द ही चुनावी दंगल में कूदना हैए और एकमुश्त वोट पाने के लिए सरकारी कर्मचारियों को खुश करने से अच्छा उपाय और कुछ हो नहीं सकता। केंद्र की देखादेखी राज्यों की सरकारें भी अपने कर्मचारियों का समर्थन पाने के लिए वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने को मजबूर होंगी। इससे देश में कायम अराजकता का और बढ़ना बिल्कुल तय है। लेकिन सवाल है कि देश के उन करोड़ों लोगों का क्या होगा ए जो रोज कमा कर खाते हैं। महंगाई के अनुपात में जिनकी कमाई रत्तीभर भी नहीं बढ़ पाती। 

मुश्किल में है सरकार...

लगता है कि भारत की सरकार बहुत बूरे दिनो से गुजर रही हैं। आये दिन सरकार के खिलाफ कुछ न कुछ खुलासा किया जा रहा हैं। जिसके कारण सत्ता की कुर्सी डगमगाने लगी हैं। लोकसभा चुनाव  जैसे जैसे नजदीक आते जा रहे है वैसे वैसे सरकार के लिए मुश्किले बढ़ती जा रही हैं अगर देखा जाए तो यूपीए चारो ओर से घिर चुकी हैं। जितने घोटालेए भ्रष्टाचारए महंगाईए बलात्कार और अन्य गडबडियों के खुलासे यूपीए के शासनकाल में हुए है उतनी किसी और पार्टी के शासनकाल में नहीं हुई होगी। विरोधी पार्टियों के आरोपों से लगता है कि यूपीए सरकार घोटाले की सरकार बनती जा रही हैं। हाल में हुए खुलासे से सरकार हिल चुकी हैं। कोल ब्लॉक आवंटन तथा २ जी स्पेक्ट्रम पर मुश्किल में फंसी यूपीए सरकार को कैग की ताजा रिपोर्ट ने एक और धक्का दिया है।
विपक्ष के लगातार दबाव के बावजूद न तो इन जिम्मेदार मंत्रियों को और न ही तत्कालीन दूरसंचार मंत्री को अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया गया। पर अब खुद ए राजा की ओर से स्थिति साफ की गई है कि नीलामी में प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को सारी जानकारियां थीं। विपक्ष को युपीए सरकार को घेरने का मौका मिल गया।
सिर्फ यही नहीं कि द्रमुक और तृणमूल की समर्थन वापसी से जेपीसी में यूपीए का बहुमत नहीं हैए बल्कि भाजपाए वाम दलए द्रमुक और सपा की नाराजगी तथा पीसी चाको को पद से हटाने की उनकी मांग को देखते हुए जेपीसी की रिपोर्ट के संसद में पेश होने पर ही संदेह है।
इसी तरह कोल ब्लॉक आवंटन से जुड़ी सीबीआई की जांच रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय में पेश किए जाने से पहले सरकार पर उसमें बदलाव करने के जो आरोप लगे हैंए वे काफी गंभीर हैं और सांविधानिक संस्थाओं के कामकाज में दखल देने के आरोपों से इंकार नहीं किया जा सकता।
यदि सीबीआई इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय को सच बता देती हैए तो सरकार की छवि और खराब होगी। मनमोहन सिंह से इस्तीफा मांगने की भाजपा की मांग पर सोनिया गांधी का सख्त रुख अपनी जगह हैए लेकिन इस पूरे प्रसंग में सबसे ज्यादा किरकिरी प्रधानमंत्री और उनके कार्यालय की ही हो रही है। ऐसे में अब प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह की जिम्मेदारी है कि वे लोगों के इस भ्रम को तोड़े कि वे सिर्फ सोनिया गांधी के कठपूतली के तरह काम करते हैं।  इस शासनकाल में इनके अलावा भी कई घोटाले उजागर हुए लेकिन उनका अभी तक कोई निर्णय नहीं हो पाया हैं। दूसरा मुद्दा जो कि सबके रोंगटे खडे कर देता हैं। आखिर कब तक इस तरह के दूष्कर्मो से बच्चियांए लडकियां और महिलाएं पीड़ित होती रहेगी या मरती रहेगीघ् बीते साल १६ दिसंबर को दिल्ली गैंगरेप की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि गुडिया रेप केस ने सरकार के लिए नई मुश्किल खड़ी कर दी है। पांच साल की बच्ची से रेप की पृष्टभूमि में हाल फिलहाल शुरू  हुए बजट सत्र के दूसरे चरण में कानून व्यवस्था को लेकर सरकार का घिरना तय है। दिल्ली में इस रेप कांड को लेकर जबरदस्त जनाक्रोश है।दिल्ली पुलिस एक बार फिर से कठघरे में खड़ी है। इस पकरण को लेकर केद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे को सदन में जवाब देना मुश्किल होगया। भाजपा तो कांग्रेस पार्टी के सांसद और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित भी सरकार से दिल्ली पुलिस के कमिश्नर नीरज कुमार को हटाने की मांग पर अड़े हैं। मालूम हो कि दिल्ली पुलिस केद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है और कानून व्यवस्था के बिगड़ने की जब बात आती है तो जनता को जवाब दिल्ली सरकार को देना पड़ता है। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पहले भी दिल्ली पुलिस को दिल्ली सरकार के अधीन करने की मांग कर चुकी हैं। दिल्ली में पीएम आवास १० जनपथ दिल्ली पुलिस मुख्यालय पर जबरदस्त प्रदर्शनों के बीच शुरू हो रहे सत्र में विपक्षी हमलों से सरकार का बचना आसान नहीं होगा। सरकार के लिए ये राहे आसान नहीं लगती हैं।

Friday 21 February 2014

जिसकी बीवी मोटी उसका ही बड़ा नाम हैं

महिला सशक्तीकरण को लेकर महिलाएँ भले ही न चिन्तित होंए लेकिन पुरूषों का ध्यान इस तरफ कुछ ज्यादा होने लगा है। जिसे मैं अच्छी तरह महसूस करता हूँ। मुझे देश.दुनिया की अधिक जानकारी तो नहीं हैए कि ष्वुमेन इम्पावरमेन्टष् को लेकर कौन.कौन से मुल्क और उसके वासिन्दे ष्कम्पेनष् चला रहे हैंए फिर भी मुझे अपने परिवार की हालत देखकर प्रतीत होने लगा है कि अ बवह दिन कत्तई दूर नहीं जब महिलाएँ सशक्त हो जाएँ।
मेरे अपने परिवार की महिलाएँ हर मामले में सशक्त हैं। मसलन बुजुर्ग सदस्यों की अनदेखी करनाए अपना.पराया का ज्ञान रखना इनके नेचर में शामिल है। साथ ही दिन.रात जब भी जागती हैं पौष्टिक आहार लेते हुए सेहत विकास हेतु मुँह में हमेशा सुखे ष्मावाष् डालकर भैंस की तरह जुगाली करती रहती हैं। नतीजतन इन घरेलू महिलाओं ;गृहणियोंध्हाउस लेडीजद्ध की सेहत दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बनने लगी है फिर भी इनके पतिदेवों को यह शिकायत रहती है कि मेवाए फल एवं विटामिन्स की गोलियों का अपेक्षानुरूप असर नहीं हो रहा है और इनकी पत्नियों के शरीर पर अपेक्षाकृत कम चर्बी चढ़ रही है। यह तो आदर्श पति की निशानी हैए मुझे आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यद्यपि मैंने सुन रखा था कि सिनेमा जगत और समाज की महिलाएँ अपने शरीर के भूगोल का ज्यादा ख्याल रखती हैंए इसीलिए वह जीरो फिगर की बॉडी मेनटेन रखने में विश्वास रखती हैं। यह तो रही फिल्मी और कमाऊ महिलाओं की बात।
मेरे परिवारध्फेमिलीध्कुनबे की बात ही दीगर है। पतियों की सेहत को तो घुन लगा है और उनकी बीबियाँ हैं कि ष्टुनटुनष् सी नजर आती हैं। परिवार के सदस्य जो पतियों का दर्जा हासिल कर चुके हैं। वह बेचारे प्रख्यात फिल्मी गीतकार मरहूम गुलशन बावरा की शक्ल अख्तियार करने लगे हैं। और उनके सापेक्ष महिलाओं का शरीर इतना हेल्दी होने लगा है जिसे ष्मोटापाष् ;ओबेसिटीद्ध कहते हैं। यानि मियाँ.बीबी दोनों के शरीर का भूगोल देखकर पति.पत्नी नहीं माँ.बेटा जैसा लगता है। यह तो रही मेरे परिवार की बात। सच मानिए मैं काफी चिन्तित होने लगा हूँ। वह इसलिए कि 30.35 वर्ष की ये महिलाएँ बेडौल शरीर की हो रही हैंए और इनके पतिदेवों को उनके मोटे थुलथुल शरीर की परवाह ही नहीं।
मैं चिन्तित हूँ इसलिए इस बात को अपने डियर फ्रेन्ड सुलेमान भाई से शेयर करना चाहता हूँ। यही सब सोच रहा था तभी मियाँ सुलेमान आ ही टपके। मुझे देखते ही वह बोल पड़े मियाँ कलमघसीट आज किस सब्जेक्ट पर डीप थिंकिंग कर रहे हो। कहना पड़ा डियर फ्रेन्ड कीप पेशेंस यानि ठण्ड रख बैठो अभी बताऊँगा। मुझे तेरी ही याद आ रही थी और तुम आ गए। सुलेमान कहते हैं कि चलो अच्छा रहा वरना मैं डर रहा था कि कहीं यह न कह बैठो कि शैतान को याद किया और शैतान हाजिर हो गया। अल्लाह का शुक्र है कि तुम्हारी जिह्वा ने इस मुहावरे का प्रयोग नहीं किया। ठीक है मैं तब तक हलक से पानी उतार लूँ और खैनी खा लूँ तुम अपनी प्रॉब्लम का जिक्र करना। मैंने कहा ओण्केण् डियर।
कुछ क्षणोपरान्त मियाँ सुलेमान मेरे सामने की कुर्सी पर विराजते हुए बोले. हाँ तो कलमघसीट अब बताओ आज कौन सी बात मुझसे शेयर करने के मूड में होघ् मैंने कहा डियर सुलेमान वो क्या है कि मेरे घर की महिलाएँ काफी सेहतमन्द होने लगी हैंए जब कि इनकी उम्र कोई ज्यादा नहीं है और ष्हम दो हमारे दोष् सिद्धान्त पर भी चल रही हैं। यही नहीं ये सेहतमन्द.बेडौल वीमेन बच्चों को लेकर आपस में विवाद उत्पन्न करके वाकयुद्ध से शुरू होकर मल्लयुद्ध करने लगती हैं। तब मुझे कोफ्त होती है कि ऐसी फेमिली का वरिष्ठ पुरूष सदस्य मैं क्यों हूँ। न लाज न लिहाज। शर्म हया ताक पर रखकर चश्माधारी की माता जी जैसी तेज आवाज में शुरू हो जाती हैं।
डिन्डू को ही देखो खुद तो सींकिया पहलवान बनते जा रहे हैंए और उनकी बीवी जो अभी दो बच्चों की माँ ही है शरीर के भूगोल का नित्य निश.दिन परिसीमम करके क्षेत्रफल ही बढ़ाने पर तुली है। मैंने कहा सिन्धी मिठाई वाले की लुगाई को देखो आधा दर्जन 5 माह से 15 वर्ष तक के बच्चों की माँ है लेकिन बॉडी फिगर जीरो है। एकदम ष्लपचा मछलीष् तो उन्होंने यानि डिन्डू ने किसी से बात करते हुए मुझे सुनाया कि उन्होंने अपना आदर्श पुराने पड़ोसी वकील अंकल को माना है। अंकल स्लिम हैं और आन्टी मोटी हैं। भले ही चल फिर पाने में तकलीफ होती होए लेकिन हमारे लिए यह दम्पत्ति आदर्श है।
मैं कुछ और बोलता सुलेमान ने जोरदार आवाज में कहा बस करो यार। तुम्हारी यह बात मुझे कत्तई पसन्द नहीं है। आगे कुछ और भी जुबान से निकला तो मेरा भेजा फट जाएगा। मैंने अपनी वाणी पर विराम लगाया तो सुलेमान फिर बोल उठा डियर कलमघसीट बुरा मत मानना। मेरी फेमिली के हालात भी ठीक उसी तरह हैं जैसा कि तुमने अपने बारे में जिक्र किया था। मैं तो आजिज होकर रह गया हूँ। इस उम्र में तुम्हारे जैसे मित्रों के साथ ष्टाइम पासष् कर रहा हूँ। कहने का मतलब यह कि ष्जवन गति तोहरीए उहै गति हमरीष्ष् यानि डियर कलमघसीट अब फिरंगी भाषा में लो सुनो। इतना कहकर सुलेमान भाई ने कहा डियर मिस्टर कलमघसीट डोन्ट थिंक मच मोर बिकाज द कंडीशन ऑफ बोथ आवर फेमिलीज इज सेम। नाव लीव दिस चैप्टर कमऑन एण्ड टेक इट इजी। आँग्ल भाषा प्रयोग उपरान्त वह बोले चलो उठो राम भरोस चाय पिलाने के लिए बेताब है। तुम्हारे यहाँ आते वक्त ही मैंने कहा था कि वह आज सेपरेटा ;सेपरेटेड मिल्कद्ध की नहीं बल्कि दूध की चाय वह भी मलाई मार के पिलाए। मैं और मियाँ सुलेमान राम भरोस चाय वाले की दुकान की तरफ चल पड़ते हैं। लावारिस फिल्म में अमिताभ बच्चन पर फिल्माया गया गाना दूर कहीं सुनाई पड़ता है कि. ष्ष्जिस की बीवी मोटी उसका भी बड़ा नाम हैए बिस्तर पर लिटा दो गद्दे का क्या काम है।
भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

Saturday 15 February 2014

भैया! पापुलर तो नेपाल वाले प्रचंड भी कम नहीं हुए थे!!




झूठी उम्मीद, कोरा आश्वासन और दोषारोपण। गरीब देश हो अथवा  समाज या आदमी। इनकी जिंदगी नियति के इसी तिराहे पर भटकते हुए खत्म हो जाती है। गरीब कोई नहीं रहना चाहता। लेकिन भारतीय संस्कृति व समाज में गरीबी की महिमा अपरंपार है। एक उम्र गुजारने के बाद हमें मालूम हुआ कि धार्मिक आयोजनों में नर - नारायण सेवा वाले कालम का मतलब फटेहालों के बीच कुछ कंबल - कपड़े बांटना है। बचपन में फिल्मों में अमूमन सभी हीरों को गरीबी का बखान करते देख हमें अपने गरीब होने पर गर्व होता था। खासकर सदी के महानायक अमिताभ बच्चन गरीबी का महिमांडन कुछ इस प्रकार करते थे, कि हमें लगता था कि भगवान ने  गरीब बना कर हम पर बहुत बड़ा एहसान किया है। लेकिन खासा समय गुजारने के बाद इल्म हुआ कि  सारे हीरो गरीबी का बखान कर दरअसल अपनी गरीबी दूर करने में लगे हैं। अपने प्यारे  देश की बात बाद में करेंगे। पहले पड़ोस में बसे नेपाल, बंगलादेश व पाकिस्तान आदि की बात कर लें। यहां जब कभी सत्ता बदलती है, बदलाव के सपने देखे - दिखाए जाते हैं। लेकिन अंत में हासिल क्या होता है- वहीं गरीब की किस्मत। एक से निराश हुए तो फिर दूसरे से उम्मीद में टाइम पास। अब अपनी ही बात करूं।  घोर गरीबी और अभाव में बचपन बिता कर ठीक से जवान भी नहीं हो पाए थे कि माता - पिता ने शादी के तौर पर भारी जिम्मेदारी का पैकेज आकर्षक पैक में हमारे हाथों में थमा दिया। असमय बोझ तले दब कर कराहने लगे, तो आश्वासन मिला-  दिल छोटा क्यों करते हो, क्या पता - नवविवाहित पत्नी की किस्मत से ही तुम्हारा कुछ भला हो जाए। फिर एक - एक कर बच्चे होते गए, और हम नाना पाटेकर की तरह अपना सिर पीटने लगे, तो फिर वहीं आश्वासन- अरे मुंह क्यों लटकाए हो- देखना एक दिन यही बच्चे बड़ा होकर तुम्हारे दिन बदल देंगे। अब बच्चों का पालन - पोषण में कमर डेढ़ी हुई जा रही है तो भी, आश्वासनों की घुट्टी - बस कुछ दिन और सब्र करो, बच्चे आत्मनिर्भर हुए नहीं कि तुम्हारी किस्मत बदल जाएगी। अपने देश की किस्मत भी मैं कुछ ऐसा ही पाता हूं। बचपन में इंदिरा गांधी का बड़ा  नाम सुना था। किशोरावस्था में ही उनकी हत्या हो गई, और देश की कमान संभाली, उनके सुपुत्र राजीव ने। कहा गया मिस्टर क्लीन है। देश का भला हुआ समझो। लेकिन जल्द ही निराशा के बादल मंडराने लगे। फिर उम्मीद टिकी राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह पर। लेकिन जल्द ही उनसे भी लोगों का मोह भंग हो गया। चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने, लेकिन महज चार महीनों के लिए। सो  वे क्या कर सकते थे। नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर वर्तमान  मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने पर भी यही उम्मीद बंधाई गई थी कि गैर गांधी परिवार के ये तपे - तपाए नेता हैं। प्रधानमंत्री बनने से पहले ही दुनिया हिला चुके हैं। अब देर नहीं, देखते ही देखते देश की किस्मत बदल जाएगी। लेकिन हुआ क्या। अब देश की नई उम्मीद बन कर उभरे हैं सादी  टोपीवाले अरविंद केजरीवाल। कहा जा रहा है गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि का ईमानदार नेता हैं। आज दिल्ली में सफलता के झंडे गाड़े हैं। जल्द ही पूरे देश पर राज करेगा। पापुलरिटी में सब को पीछे छोड़ चुका है। जनता की किस्मत बदलने में अब कैसी देरी। लेकिन अपना मन कहता है कि भैया , पांच साल पहले ऐसे ही पापुलर तो नेपाल वाले प्रचंड भी हुए थे। राजशाही को उखाड़ फेंकने के चलते पुरी दुनिया उनकी प्रचंड लोकप्रियता की  मुरीद हो गई थी। लेकिन औंधे मुंह गिरने में भी उन्हें कितना समय लगा। इसलिए भैया , गरीब आदमी हो या देश। उनकी किस्मत तो भगवान ही बदल सकता है। आज केजरीवाल प्रचंड की जगह है क्या पता कल...

Monday 10 February 2014

शराबी के मुँह की दुर्गन्ध माँ और पत्नी को महसूस नही होती


हमारे खानदान के सभी ढाई, तीन, साढ़े तीन अक्षर नाम वाले लोग निवर्तमान नवयुवक हो चुके हैं, कुछ तो जीवन की अर्धशतकीय पारी खेल रहे हैं तो कई जीवन के आपा-धापी खेल से रिटायर भी हो चुके हैं। कुछ जो बचे हैं वे लोग अर्धशतकीय और उसके करीब की पारियाँ खेल रहे हैं। खानदान का नाम रौशन करना इनका परम उद्देश्य कहा जा सकता है मुझे तो आभास हो रहा है कि यदि इनका खेल इसी तरह जारी रहा तो वह दिन भी आ जाएगा जब देश के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित/पुरस्कृत होंगे। जी हाँ मुन्ना, बब्लू, गुड्डू, डब्ल्यू, रिंकू, सिन्टू, मिन्टू, बन्टी, गोलू आदि नाम वालों ने घर फूँक तमाशा का खेल जिस तरह से जारी रखा हुआ है उससे तो हमारा खानदान/गाँव राज्य में ही नहीं देश में सर्वोच्च स्थान पर होगा और इनमें एकाध को ‘देश रत्न’ का खिताब भी मिलेगा।
अब यह मत पूँछिएगा कि घर फूँक तमाशा कौन सा खेल होता है। यह एक मुहावरा है। असली खेल है ‘दारूबाजी’। जी हाँ यह एक अत्यन्त लोकप्रिय खेल है, यह बात अलहदा है कि ‘मीडिया’ ने अभी इधर रूख नहीं किया है। कैसे करें हमारे गाँव से ही कितने ऐसे लोग मीडिया में है जो इस खेल के पारंगत खिलाड़ी है तब भला हमारे गाँव के दारूबाजों का बाल बाँका कैसे हो सकता है।
‘‘फानूस बनके जिसकी, हिफाजत हवा करे।
वह शमा क्या बुझेगी, जिसे रौशन खुदा करे।।’’
मतलब यह कि मीडिया जैसा अस्त्र और कवच जब ढाई, तीन, साढ़े, तीन अक्षरों वालों के साथ है तब कलम/कैमरे का रूख उधर कैसे होगा? सामाजिक सरोकारों से सर्वथा दूर ये दारूबाज अपने काम को बखूबी अंजाम दे रहे हैं, यह बात सिर्फ उन्हें परेशान कर सकती है जो इनसे रिश्ते में काफी नजदीक हैं। चोरी हेराफेरी और जमीन जायदाद की बिक्री करना कोई इनसे सीखे। नशा करना है तो पैसा चाहिए पैसा नहीं है तो चोरी, हेराफेरी फिर जमीन जायदाद की बिक्री यह क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक आबकारी विभाग के जरिए सरकार को राजस्व की भरपूर आमदनी होती रहेगी।
एक बात मैने महसूस किया है कि किसी व्यक्ति के मुँह से निकलने वाली दारू की दुर्गन्ध उसकी माँ और पत्नी को नहीं महसूस होती। माँ और पत्नी के रिश्ते की घ्राण इन्द्रिय को इन व्यक्तियों की दुर्गन्धयुक्त स्वाँसों ने फालिज का शिकार बना दिया है। अरे भाई जरा रूकिए किसी वृद्धा माँ और प्रौढ़ स्त्री से यह मत कह दीजिएगा कि उनका पुत्र और पति शराबी है वर्ना आप जानो और आपका काम। अपना काम है समझाना सो कह रहा हूँ। कर डालो यह सुकार्य कहो कि अमुक व्यक्ति दारूबाज है। माताएँ और उनकी पत्नियाँ कोसना शुरू कर देंगी। इसे मेरी आप बीती भी मान सकते हो।
दारूबाज कितने प्रकार के होते हैं, सोचो कि यह कैसा प्रश्न है? जी हाँ यह सवाल है जिसका उत्तर बड़ा ही आसान है। एक बार नहीं अनेको बार मैने कइयों से पूँछा क्यों डियर तुम्हारे डैड नशा करते हैं, तुरन्त रिस्पान्स मिला हाँ सर जी लेकिन अपने पैसे की नहीं पीते हैं। चलो ठीक है ऐसे लोग पास/बेटिकट/मुफ्त में ही मौत का ग्रास बन रहे हैं। दारूबाजों के प्रकार में ठर्रा/कच्ची, देशी और विदेशी शराब के सेवन करने वालों को श्रेणीबद्ध करने के क्रम में- ठर्रा (कच्ची) कम पैसे वाले श्रमिक वर्गीय लोग पीते हैं। हमारे गाँव में मनरेगा का पैसा देशी दारू के सेवन में खर्च होता है। ऐसा करने वालों का मन हमेशा गाता है न कि मनरेगा के प्रत्येक अक्षर का फुलफार्म बाँचे। यदि ऐसा करने का बिल पावर जुटा भी लिया तो गाँधी जी को अपमानित होना पड़ेगा।
जब कोई प्रभावशाली/बड़ा आदमी शराब का नशा करके ऊल-जुलूल हरकतें करता है तब आम लोग इसके विरूद्ध आवाज नहीं उठाते हैं, परन्तु जब किसी साधारण व्यक्ति ने थोड़ा सा मदिरा सेवन कर लिया तो बावेला खड़ा। हमारे गाँव में रहने वाले परिवार/खानदान के लोगों की हालत भी कुछ ऐसी ही है। आए दिन शोर-शराबा और अराजकता फैलाकर ये दारूबाज इस बात की पुष्टि करते हैं कि इन लोगों ने जमकर मदिरा पान किया है। ढाई अक्षर नाम वाले अधेड़ भाई साहेब ने अपनी पुश्तैनी जमीन बेंचकर दारू पीना शुरू किया है। उनकी सेवा में हराम की पीने वालों की भीड़ लगी हुई है। एक तो तितलौकी दूजे नीम चढ़ी- ठाकुर जाति के हैं ऊपर से दारू का नाश्ता ऐसे में किसकी मजाल कि वह कह सके कि बाबू साहब दारू पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, आप अपनी मौत को दावत दे रहे हैं। यदि किसी ने कह दिया तो उनका यह उत्तर भी हो सकता है कि रोज-रोज पत्नी, बच्चों की बातें सुनकर घुट-घुटकर मरने से बेहतर है कि खा-पीकर मरूँ। पत्नी की डांट-मार खाकर मरने से अच्छा है कि शराब के जहर से ससम्मान मरूँ।
बाबू साहब की बात है- उनको समझाकर अपनी बेइज्जती कौन कराए? हमारे खानदान में कई और भी हैं जो पियक्कड़ की श्रेणी में नहीं कहे जाते हैं, लेकिन पीते हैं शान से। पैसा कमाते हैं इसलिए वाइन्स (ब्राण्डेड अंगरेजी शराब) पीते हैं, उनकी बड़ी इज्जत है। पैसा है कुछ बेंचकर वाइन्स का सेवन नहीं करना है, इसलिए वह लोग इज्जतदारों की श्रेणी में आते हैं। एक बात और ऐसे लोग जो शाम को रात्रि भोजन के पूर्व वाइन्स लेते हैं या फिर पार्टियों में मदिरा सेवन करते हैं बड़े लोगों में शुमार होते हैं। यह बात दीगर है कि वे भी पियक्कड़ ही हैं, फिर भी अपना मानना है कि हर दारूबाज को उनकी स्टाइल्स का अनुकरण अनुसरण करना चाहिए। इससे हर पियक्कड़ सम्मानित कहलाएगा।
हमारे कई बन्धु ऐसे हैं जो घर का खाद्यान्न, बर्तन, जेवर तक बेंचकर दारू गटक चुके हैं। मजाल क्या कोई तीसरा उल्लू का पट्ठा उनकी माताओं/पत्नियों और बच्चों से यह कहे कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। मेरा गाँव भी अद्वितीय है और यहाँ निवास करने वाले तो परम अद्वितीय। खुद मियाँ फजीहते- दीगरे नसीहते। इस एपीसोड में बस इतना ही क्योंकि लिखते-लिखते मेरा भी दारू पीने का मन होने लगा है। 

Sunday 9 February 2014

टेलीफोन सस्ता हो सकता है तो रेलवे और बिजली क्यों नहीं ...!!


90 के दशक के मध्य में एक नई चीज ईजाद हुई थी पेजर। बस नाम ही सुना था। जानकारी बस इतनी कि इसके माध्यम से संदेशों का आदान - प्रदान किया जा सकता था। दुनिया पेजर को जान - समझ पाती, इससे पहले ही मोबाइल फोन अस्तित्व में आ गया। हालांकि शुरू में इसे सेल्यूलर या सेल फोन के नाम से जाना जाता था। कुछ बड़े लोगों तक सीमित इस फोन से काल रिसीव करने का भी चार्ज लगता था। इस चार्ज के हटने पर मोबाइल फोन की पहुंच आम - आदमी तक हो गई। मैं मोबाइल का ग्राहक काफी बाद में बना। लेकिन तब भी मोबाइल रिचार्ज का न्यूनतम दर लगभग 350 रुपए मासिक था। इस राशि का करीब आधा हिस्सा महकमे के बट्टे खाते में चला  जाता था। जबिक आधी राशि से लोकल व एसटीडी काल के एवज में मोटी रकम काटी जाती थी। लेकिन  प्रतिस्पर्धा का कमाल ऐसा कि आज सेकेंड के दर से मोबाइल पर बात की सुविधा है। सवाल उठता है कि टेलीफोन के मामले में यह बदलाव क्या किसी जादू की छड़ी से हुआ है। बिल्कुल नहीं , निजी कंपनियों के बढ़ते प्रभाव और  प्रतिस्पर्धा के चलते ही आज लोगों को अपनी सुविधा के लिहाज से काल करने की सुविधा मिल पा रही है। जिसकी एक दशक पहले तक भी कल्पना नहीं की जा सकती थी। अब अहम सवाल है कि यदि टेलीफोन सस्ता हो सकता है, तो  रेलवे और बिजली क्यों नहीं। सवाल यह भी है कि टेलीफोन कंपनियां यदि आज लोगों को कम दर पर काल की सुविधा दे रही है, तो क्या जनहित में भारी घाटा उठा कर। यदि नहीं तो प्रतिस्पर्धा का दौर शुरू होने तक विभाग  ने जो अनाप - शनाप पैसा उपभोक्ताओं से लिया, वह किस - किस की जेब में गया। दूरसंचार विभाग के अधिकारी से लेकर कर्मचारी तक यही कहते हैं कि सुखराम से लेकर राजा तक ने उनके विभाग का पैसा ही हजम किया, क्योंकि सबसे ज्यादा पैसा इसी में है। वे यदि कामचोरी करते हैं, तो इसमें गलत क्या है। इसी तर्ज पर रेलवे और बिजली विभाग का कायाकल्प किया जाए, तो बेशक जनता को सस्ते दर पर परिसेवा मिलने लगेगी। अहम सवाल है कि आखिर  आम जनता को  क्यों इन दोनों महकमों के लिए दुधारू गाय बना कर रखा जाए, कि जब चाहा दूह लिया। तिस पर तुर्रा यह कि हर समय घाटे का रोना भी रोया जाता है। मानों ये दोनों  महकमे आम जनता पर कोई भारी एहसान कर रहे हों। इस संदर्भ में दिल्ली के नए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का बिजली कंपनियों का आडिट कराने का फैसला अभूतपूर्व , सराहनीय और ऐतिहासिक है। इसी तर्ज पर रेलवे के आय - व्यय का भी आकलन किया जाना चाहिए। जिससे पता लगे कि आखिर किस मजबूरी में ये जब चाहे , किराया बढ़ा कर पहले से परेशान जनता की परेशानी और बढ़ाने का कार्य करते हैं। सरकार की सदिच्छा हो तो काफी कुछ बदल सकता है। करीब एक दशक पहले तक सरकारी या राष्ट्रीयकृत बैकों में एक साधारण ग्राहक खाता खुलवाने में पसीने छूट जाते थे। आज वहीं बैंक गली - मोहल्लों में शिविर लगा कर लोगों के खाते खोल रहे हैं। यह परिवर्तन भी किसी जादू की छड़ी से नहीं हुआ है। बैंकिंग व्यवसाय में विदेशी बैंकों के कूद पड़ने, समय के साथ सुधार , और बैंकों को लाभ - हानि के प्रति जवाबदेह बनाने के चलते ही यह चमत्कार हुआ है।  इसी तरह से लोगों को सस्ती बिजली व बेहतर रेल परिसेवा भी मिल सकती है। बशर्ते इन विभागों में भी बैंक व टेलीफोन वाला फार्मूला अपनाया जाए और उन्हें जवाबदेह बनाया जाए।  

Thursday 6 February 2014

जाति तोड़ कर फंस गया रे भाया...!!

                                          

कोई यकीन करे या न करे, लेकिन यह सच है कि जाति तोड़ने का दुस्साहस कर मैं विकट दुष्चक्र में फंस चुका हूं। जिससे निकलने का कोई रास्ता मुझे फिलहाल नहीं सूझ रहा। पता नहीं  क्यों मुझे् यह डर लगातार सता रहा है कि मेरे इस दुस्साहस का बोझ मेरी आने वाली पीढि़यों को भी ढोने को अभिशप्त होना पड़ सकता है। दरअसल स्कूली जीवन में जाति तोड़ो आंदोलन की मैने काफी चर्चा सुनी थी। जयप्रकाश नारायण और चंद्रशेखर जैसे कुछ बगैर जाति सूचक उपनाम वाले नाम मुझे हैरानी में डाल देते थे। क्योंकि उस दौर में उपनाम हीं नहीं बल्कि नाम व उपनाम के आगे जाति का उल्लेख भी धड़ल्ले से होता था। जैसे पंडित फलां शास्त्री या ठाकुर विक्रम सिंह। उस दौर  में कुमार नामधारी हस्तियों का जलवा भी अपनी जगह था ही। जैसे दिलीप कुमार, किशोर कुमार व मनोज कुमार आदि। बस इसी से प्रभावित होकर मैने अपने नाम से जातिसूचक उपनाम हटा लिया। लिहाजा शैक्षणिक प्रमाण पत्रों में मेरा नाम उपनाम के बगैर रहा। लेकिन युवावस्था में कदम रखते ही मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने के साथ ही परिचय पत्र बनाने की नौबत आई, तो उसमें नाम से पहले उपनाम लिखना जरूरी था। इससे  मेरे नाम के साथ उपनाम अपने - आप जुड़ गया। अपने दायरे में लोग मुझे पूरे नाम से जानते ही थे। लिहाजा मैं एक ऐसे दुष्चक्र में उलझता गया कि नौबत अपने आप से पूछने की आ गई कि मैं आखिर हूं कौन। चूंकि मेरे नाम के साथ उपनाम नहीं था, लिहाजा अपने बेटे का नामकरण भी मैने बगैर उपनाम के ही करने का फैसला किया। लेकिन  समय के साथ लेन - देन में कठिनाई बढ़ने लगी। कुछ प्रपत्रों में बगैर उपनाम के औऱ कहीं पूरे नाम के साथ नजर आते ही अपने क्षेत्र में सुपरिचित होते हुए भी मैं संदिग्ध होता चला गया। संबंधित अधिकारी मुझे संदेह की नजरों से देखते हुए दो नाम के लिए कुछ इस अंदाज में पूछताछ करने लगते , मानो मैं कोई अपराधी हूं।और  अपने नाम के साथ जातिसूचक उपनाम न जोड़ कर मैन कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया। कई दफ्तरों में मुझसे पूछा गया ...आपनार नामेर सोंगे टाइटल नेई केनो, टाइटल छाड़ा आबार नाम होए ना कि ( आपके  नाम के साथ टाइटल क्यों नहीं है, बगैर टाइटल के भी कहीं नाम होता है क्या) शपथ पत्र देते - देते हुए मैं टूट गया, और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि जाति तोड़ने की कोशिश कर  मैं बुरी तरह से फंस चुका हूं। जल्द ही गलती नहीं सुधारी, तो मेरी बेवकूफी की सजा आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा। इसलिए मैने अपने और बेटे के नाम के साथ उपनाम जोड़ने के लिए दफ्तरों के  चक्कर काटना शुरू किया। यहां तक कि प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के समक्ष कटघरे में खड़ा हुआ कि नाम के साथ उपनाम न जोड़ कर मुझसे बड़ी गलती हो गई, अब मैं इसे सुधारना चाहता हूं। अदालती मुहर के बावजूद इसके लिए मैं पिछले दो साल से दफ्तरों के चक्कर काट रहा हूं। अपने राज्य के  शिक्षा मंत्री से लेकर  मुख्यमंत्री तक गुहार लगा कर थक गया।  लेकिन आज तक मेरे औऱ बेटे के नाम के साथ पुछल्ला जातिसूचक  उपनाम जोड़ने में सफल नहीं हो पाया हूं। एक बड़े अधिकारी से दोस्ती गांठ कर इतना जान पाया हूं, कि यह कार्य इतना आसान नहीं। बकौल अधिकारी हर महकमा इस बात की जांच करेगा कि आखिर क्यों इतने साल तक बगैर उपनाम के रहने के बाद यह शख्स अब  अपने नाम के साथ इसे जोड़ना चाहता हैं। कहीं इसके पीछे कोई गलत मकसद तो नहीं... बहरहाल अपनी ऐतिहासिक गलती पर सिर धुनते हुए मन बार - बार एक ही बात कहता है... जाति तोड़ कर फंस गया रे भाया... नाम के पीछे से जातिसूचक उपनाम न रख कर मैन अपनों पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारी, बल्कि कुल्हाड़ी पर पैर दे मारा था....

Monday 3 February 2014

जब कला बन जाए कारोबार ...!!

किसी जमाने में जब कला का आज की तरह बाजारीकरण नहीं हो पाया था, तब किसी कलाकार या गायक से अपनी कला के अनायास  और सहज प्रदर्शन की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। शायद यही वजह है कि उस दौर में किसी गायक से गाने की फरमाइश करने पर अक्सर गला खराब होने की दलील सुनने को मिलती थी। इसकी वजह शायद यही है कि किसी भी नैसर्गिक कलाकार के लिए थोक में रचना करना संभव  नहीं है। यदि वह ऐसा करेगा तो उसकी कला का पैनापन जाता रहेगा। हो सकता है कि वह उसकी  रचना की मौलिकता ही खत्म हो जाए। लेकिन बाजारवाद को तो  जैसे  कला को भी धंधा बनाने में महारत हासिल है। अब विवादों में फंसे कथित कमाडेयिन कपिल शर्मा का उदाहरण ही लिया जा सकता है।  दूसरी कलाओं की तरह कामे़डी भी एक गूढ़ विद्या है। मिमकिरी और कामे़डी का घालमेल कर कुछ लोग चर्चा में आने में सफल रहे। स्वाभाविक रूप से इसकी बदौलत उन्हें नाम - दाम दोनों मिला। इस कला पर कुछ साल पहले बाजार की नजर पड़ी। एक चैनल पर लाफ्टर चैलेंज की लोकप्रियता से बाजार को इसमें मुनाफा नजर आया, और शुरू हो गई फैक्ट्री में हंसी तैयार करने की होड़। कुछ दिन तो खींचतान कर मसखरी की दुकान चली,. लेकिन जल्दी ही लोग इससे उब गए। फिल शुरू हुआ कि कामेडी का बाजारीकरण। यानी जैसे भी हो, लोगों को हंसाओ। लेकिन वे भूल गए कि एक बच्चे को भी जबरदस्ती हंसाना मुश्किल काम है। आम दर्शक खासकर प्रबुद्ध वर्ग को हंसाना अासान नही। लेकिन बाजार तो जैसे हंसी के बाजार का दोहन करने पर आमाद हैै। उसे इससे कोई मतलब नहीं कि परोसी जा रही हंसी की खुराक में जरूरी तत्व है नही। बस जैसे भी हो कृत्रिम  ठहाकों और कहकहों से माहौल बदलने की कोशिश शुरू  हो गई। इस   प्रयास में कामेडियन कलाकारों के सामने फूहड़ हरकत करना औरल भोंडेपन का सहारा लेने के  सिवाय और कोई रास्ता नहीं बचा था। जाहिर है अश्ललीलता औ र  महिलाओं को  इस विडंबना का आसान शिकार  बनना ही  था। लेकिन आखिर इसकी भी तो कोई सीमा है। लिहाजा नौबत कपिल शर्मा से जुड़े ताजा विवाद तक जा पहुंची। यह भी तय है कि यदि बाजार ने हंसी को फैक्ट्री में जबरदस्ती पैदा करने की कोशिश जल्द बंद नहीं की तो ऐसे भोंडे कामेडी शो देख  कर लोगों को हंसी नहीं आएगी, बल्कि लोग अपना सिर धुनेंगे।

Saturday 1 February 2014

काजल की कोठरी में केजरीवाल...!!


बीवी का मारा बेचारा किसी से अपनी दुर्दशा कह नहीं सकता। इसी तरह सत्ता को कोस कर सत्ता पाने वाला भी यह कहने की हालत में नहीं रहता कि सब कुछ इतना आसान नहीं है। व्यवहारिक जिंदगी में कई बार एेसा होता है कि हमें बाहर से जो चीज जैसी दिखाई देती है, वह वस्तुतः वैसी होती नहीं। खरी बात यह कि सत्ता हो या राजनीति बाहर रहते हुए निंदा - आलोचना करना जितना आसान है, इसमें उतर कर सही मायने में कुछ करके दिखा पाना उतना ही कठिन। यही वजह है कि 70 के दशक में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई जनता पार्टी का इतिहास हो या 80 के दशक के मध्य में लोगों में उम्मीद बन कर उभरे राजा विश्वनाथ प्रताप सिहं। सत्ता मिलने के बाद सभी जन आकांक्षाओं को पूरा करने में बुरी तरह से नाकाम ही रहे। राजनीति की डगर कितनी कठिन  है इस बात का भान मुझे अपने युवावस्था के शुरूआती दिनों में ही हो गया था। जब स्थापित राजनेताओं व राजनैतिक दलों की मनमानी और  गलत कार्यों से नाराज होकर बगैर पृष्ठभूमि व तैयारी के ही मैं कारपोरेशन चुनाव में उम्मीदवार बन गया। चुनावी मौसम में ऐसे मौकों की तलाश में रहने वालों ने मुझे चने की पेड़ पर चढ़ाने में कोई कसर बाकी नहीं रहने दी। बहरहाल इससे मेरा उत्साह जरूर बढ़ा। कोई स्थापित राजनैतिक दल तो मुझे टिकट देने वाला था  नहीं , लिहाजा मैने एक विकासशील पार्टी से संपर्क किया। उस दल के गिने - चुने नेताओं के लिए तो यह बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने जैसा ही  था। उन्होंने मेरा स्वागत करते हुए हर्षित प्रतिक्रिया दी... आप जैसों का हमारे दल में आना शुभ है, आप को यह फैसला पहले ही लेना चाहिए था। बहरहाल हम आपको टिकट देंगे। फिर शुरू हुआ  मुसीबतों का दौर। पेशेवर राजनेता उम्मीदवारों के दबाव में समय के साथ  हमारे एक - एक कर साथी कम होते गए। कुछ ने गुप्त तरीके से तो कुछ ने खुल कर उनके साथ सौदेबाजी भी कर डाली। न घर का न घाट का .. जैसी हालत तो मेरी थी। वह मेरी  बेरोजगारी का दौर था। लिहाजा परिजनों ने हमारी इस नादानी पर छाती पीटना शुरू कर दिया। जिसे अपना शुभचिंतक समझते थे, उन्होंने भी हमें कोसते हुए मदद से हाथ खड़े कर दिए। यह और बात है कि उम्मीदवार बनने से पहले तक वे हमें पूरा साथ देने का आश्वासन दे रहे थे। उलाहना मुफ्त में दिया कि चुनाव लड़ कर कोई जीत तो जाओगे नहीं , क्यों फिजूल में इस झमेले में पड़े। जिस पार्टी ने हमें टिकट दिया था उसने भी यह कहते हुए आर्थिक मदद करने से इन्कार कर दिया कि चुनाव प्रचार को तमाम सेलीब्रिटीज आ रही है, उन पर होने वाला खर्च संभालनाही मुश्किल है। तुम्हारी मदद क्या की जाए। चुनाव नजदीक आने तक हमारी छोटी सी जेब खाली हो गई, तो अपने जैसे कुछ उम्मीदवारों को साथ लेकर हम आर्थिक सहायता मांगने निकल पड़े। जनता के बीच जाने पर उलाहना व तानों के सिवा क्या मिलना था, सोचा कुछ गिने - चुने सक्षम लोगों के सामने ही बात रखी जाए। लेकिन वहां भी घोर निराशा हाथ लगी। पेशेवर औऱ धंधेबाज राजनेताओं के लिए अपनी तिजोरी खोल देने वाले धनकुबेरों ने भी हमें सहायता के नाम पर तानों के साथ जो राशि दी, उससे कई गुना ज्यादा वे मोह्ल्लों में आयोजित होने वाले मेला और  पूजा समारोहों में देते थे।  आखिरी दौर में भी हमने देखा कि सामान्य दिनों में जिन नेताओं को लोग गालियां देते थे, चुनावी मौसम में उन्हीं के आगे - पीछे घूमते हुए उनके समर्थन में नारे लगा रहे थे। दूसरी ओर मैं  अनचाहे कर्ज के दलदल में फंसता जा रहा था। मेरी हालत चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु जैसी हो गई थी। इंतजार था तो बस चुनाव  खत्म होने का। चुनाव परिणाम घोषित होते ही धंधेबाज नेताओं के समर्थन में की जा रही हर्ष ध्वनि और  निकाले जा रहे जुलूस के शोर - शराबे  के बीच मैं लगभग वैसे ही भागा, जैसे पिंजरे से छूटने के बाद पक्षी आकाश की ओर उड़ान भरता है। इसलिए अरविंद केजरीवाल की हालत में अच्छी तरह समझ सकता हूं। उन्हें मेरी शुभकामनाएं...

Wednesday 29 January 2014

गुलाम गणों में "गणतन्त्र" की धूम

हिन्दोस्तानी अवाम 1950 से लगातार 26 जनवरी का जश्न मनाते आ रहे हैं, खूब जमकर खुशियां मनाते है हैं नाचते गाते हैं मानों ईद या दीवाली हो। 62 साल के लम्बे अर्से में आजतक शायद ही किसी ने यह सोचा हो कि किस बात की खुशियां मना रहे है। क्या है 26 जनवरी की हकीकत, यह जानने की किसी ने कोशिश नहीं की। बस सियारी हू हू हू हू कर रहे हैं। क्या है 26 जनवरी को जश्न का मतलब, गणतन्त्र या खादी और वर्दीतन्त्र। गणतन्त्र के मायने कया हैं। कया 26 जनवरी वास्तविक रूप में गणतन्त्र दिवस है? है तो केसे है? कोई बता सकता है कि 26 जनवरी को जिस संविधान को लागू किया गया था उसमें गण की क्या औकात है या गण के लिए क्या है? जाहिर है कि शायद ही कोई बता सके कि 26 जनवरी 1950 को लागू किये गये संविधान में गण के लिए कुछ है। कुछ है ही नहीं तो कोई बता भी क्या सकेगा। इसलिए हम दावे के साथ कह सकते हैं कि 26 जनवरी को गणतन्त्र दिवस नहीं बल्कि वर्दीतन्त्र और खादीतन्त्र दिवस है।


गण का मतलब हर खास और आम यानी अवाम। और गणतन्त्र का मतलब है अवाम का अपनी व्यवस्था। ऐसी
व्यवस्था जिसमें अवाम की कोई इज्जत हो, अवाम को आजादी से जीने का हक हो, जनता को अपना दुख दर्द कहने का हक हो, जनता को बिना किसी धर्म जाति रंग क्षेत्र के भेदभाव किये न्याय मिले आदि आदि। लेकिन क्या गण 26 जनवरी को जिस गणतन्त्र के नाम पर उछल कूद रहे हैं उसमें गण को यह सब चीजें दीं हैं? नाम को भी नहीं, क्योंकि यह गणतन्त्र है ही नहीं। यह तो खादीतन्त्र और वर्दीतन्त्र है। दरअसल 15 अगस्त 1947 की रात जब ब्रिटिश भारत छोड़कर गये तो गांधी ने ऐलान किया कि 'आज से "हम" आजाद हैं।' गांधी के इस हम शब्द को गुलाम जनता ने समझा कि वे (गुलाम जनता) आजाद हो गये। जबकि ऐसा नहीं था गांधी के "हम" शब्द का अर्थ था गांधी की खादी पहनने वाले और खादी के जीवन को चलाने वाली वर्दी। यानी खादी और वर्दी आजाद हुई थी। गण तो बेवजह ही कूदने लगे और आजतक कूद रहे हैं। कम से कम गांधी जी के "हम" का अर्थ समझ लेते तब ही कूदते। खैर, मेरे देशवासी सदियों से सीधे साधे रहे है और इनकी किस्मत में गुलामी ही है लगभग ढाई सरौ साल तक ब्रिटिशों ने गुलाम बनाकर रखा। जैसे तैसे ब्रिटिशों से छूटे तो कुछ ही लम्हों में देसियों ने गुलाम बना लिया, रहे गुलाम ही। कहा जाता है कि 26 जनवरी 1950 को हमारे देश का संविधान लागू किया गया था उसी का जश्न मनाते हैं। अच्छी बात है संविधान लागू होने का जश्न मनाना भी चाहिये। लेकिन सवाल यह है कि किसको मनाना चाहिये जश्न? क्या उन गुलाम गणों को जिनको इस संविधान में जरा सी भी इज्जत या हक नहीं दिया गया, जो ज्यों के त्यों गुलाम ही बनाये रखे गये हैं? या उनको जिनको हर तरह की आजादी दी गयी है देश के मालिक की हैसियतें दीं गयीं हैं, जिन्हें खुलेआम हर तरह की हरकतें करने की छूट दी गयी है? जिनकेआतंक को सम्मान पुरूस्कार दिये जाते हों या जिनके हाथों होने वाले सरेआम कत्लों को मुठभेढ़ का नाम दिया जाता हो। हमारा मानना है कि गुलाम गणों को कतई भी कूदना फांदना नहीं चाहिये।



15 अगस्त और 26 जनवरी की खुशियां सिर्फ खादी और वर्दीधारियों को ही मनाना चाहिये क्योंकि 26 जनवरी 1950 को जिस संविधान को लागू किया गया वह सिर्फ खादी और वर्दीधारियों को ही आजादी, मनमानी करने का अधिकार देता है। गुलाम जनता (गण) पर तो कानून ब्रिटिश शासन का ही है। देखिये खददरधारियों को संविधान से मिली आजादी के कुछ जीते जागते सबूत। केन्द्र की मालिक खादी ने मनमाना फैसला करते हुए पासपोर्ट बनाने का काम निजि कम्पनी को दे दिया, यह कम्पनी गुलाम को जमकर लूटने के साथ साथ खुली गुण्डई भी कर रही है। कम्पनी भी लूटमार करने पर मजबूर है क्योंकि उसकी कमाई का आधा माल तो खददरधारियों को जा रहा है।
केन्द्र व राज्यों की मालिक खादी ने सड़को को बनाने और ठीक करके गुलामों से हफ्ता वसूली का ठेका निजि कम्पनियों को दे दिया। ये कम्पनियां पूरी तरह से गैर कानूनी उगाही कर रही है एक तरफ तो टौलटैक्स की बसूली ही पूरी तरह से गैरकानूनी है ही साथ ही गरीब गुलामों के मुंह से निवाला भी छीनने की कवायद है। अभी हाल ही में रेल मंत्री ने
मनमाना किराया बढ़ाकर गुलामों को अच्छी तरह लूटने की कवायद को अनजाम दे दिया और तो और इस कवायद में खादीधारी (रेलमंत्री) रेलमंत्री ने गुलाम गणों की खाल तक खींचने का फार्मूला अपनाते हुए पहले से खरीदे गये टिकटों पर भी हफ्ता वसूली करने का काम शुरू करा दिया। 26 जनवरी 1950 को लागू किये जाने वाले ब्रिटिश संविधान में आजाद हुई खादी और गुलाम गणों के बीच का फर्क का सबूत यह भी है कि हवाई जहाज के किराये में भारी कमी के साथ ही इन्टरनेट प्रयोग भी सस्ता करने की कवायद की जा रही है तो गरीब गुलाम गणों के मुंह का निवाला भी छीनने के लिए महीने में दो तीन बार डीजल के दाम बढ़ा दिये जाते हैं क्योंकि 15 अगस्त 1947 को गांधी जी द्वारा बोले गये शब्द "हम" यानी खददरधारी अच्छी तरह जानते हैं कि डीजल के दाम बढ़ने का सीधा असर गरीब गुलाम गणों के
निवालों पर पड़ता है जबकि हवाई यात्रा या इन्टरनेट का प्रयोग गरीब गुलाम गण नही कर सकते। देश के किसी भी शहर में जाकर देखिये छावनी क्षेत्र में प्रवेश पर गुलाम गणों से प्रवेश "कर" तो लिया ही जाता है साथ ही अब तो हाईवे पर भी सेना उगाही की जाती है। वर्दीधारी किसी को सरेआम कत्ल करते हैं तो उसे मुठभेढ़ का नाम देकर कातिलों को ईनाम दिये जाते हैं अगर विरोध की आवाज उठे तो जांच के ड्रामें मेंमामला उलझाकर कातिलों का बचाव कर लिया जाता है। हजारों ऐसे मामले हैं। साल भर पहले ही कश्मीर में सेना ने एक मन्दबुद्धी गरीब गुलाम नौजवान को कत्ल कर दिया ड्रामा तो किया कि आतंकी था लेकिन चन्द घण्टों में ही सच्चाई सामने आ गयी लेकिन आजतक कातिलों के खिलाफ मुकदमा नही लिखा गया, कश्मीर में पहले भी सेना द्वारा घरों में
घुसकर कश्मीरी बालाओं से बलात्कार की करतूतों के खिलाफ आवाज उठाने वाले को आतंकी घोषित करके मौत के घाट उतार दिया गया।
बरेली के पूर्व कोतवाल ने हिरासत में एक लड़के को मार दिया विरोध के बाद जांच का नाटक शुरू हुआ वह भी ठण्डा पड़ गया। यही अगर कोई गुलाम गण करता तो अब तक अदालतें उसे जमानत तक न देती। बरेली के थाना सीबी गंज के पूर्व थानाध्यक्ष वीएस सिरोही फिरौती वसूलता था इस मामले की शिकायतों सबूतों के बावजूद आजतक उसके खिलाफ कार्यवाही की हिम्मत किसी की नही हुई क्योंकि वह वर्दीधारी है उसे 26 जनवरी 1950 को लागू किये गये ब्रिटिश संविधान ने इन सब कामों की आजादी दी है जो गुलाम गणों के लिए दण्डनीय अपराध माने गये हैं। रेलों में फौजी गुलामों गणों को नीचे उतारकर पूरी पूरी बोगियां खाली कराकर फिर 50-100 रूपये की दर से पूरी पूरी सीटें देकर कुछेक यात्रियों को सोते हुए सफर करने के लिए देने के साथ ही भी खुद आराम से सोते हुए सफर करते हैं, रेल में खददरधारियों के साथ साथ उनके कई कई चमचों तक को फ्री तफरी करने के अधिकार दिये जाते है जबकि गुलाम गणों को प्लेटफार्म पर जाने तक के लिए गुण्डा टैक्स अदा करना पड़ता है। स्टेशनों, विधानसभा, लोकसभा, सचिवालय समेत किसी भी जगह में प्रवेश करने पर गुलाम गणों को चोर उचक्का मानकर तलाशियां ली जाती हैं प्रवेश के लिए गुलामों को पास बनवाना पड़ता है वह इधर से ऊधर धक्के दुत्कारे सहने के बाद जबकि खददरधारियों और वर्दीधारियों को किसी पास की आवश्यक्ता नही होती, कहीं कफर्यु लग जाये तो गुलाम गणों को धर से बाहर निकलने पर मालिकों (वर्दी) के हाथों पिटाई और अपमानित होना पड़ता है जबकि खददरधारियों और वर्दीधारियों को खुलेआम घूमने, अपने सगे सम्बंधियों को इधर ऊधर लाने ले जाने की छूट रहती है खादी ओर वर्दी को छूट होने के साथ साथ उनके साथ चल रहे सगे सम्बंधियों मित्रों चमचों तक को पास की जरूरत नहीं होती। वर्दी जब चाहे जिससे चाहे जितनी चाहे गुलाम गणों से बेगार कराले पूरी छूट है जैसे लगभग एक साल पहले बरेली में तैनात एक पुलिस अधिकारी का कोई रिश्तेदार
मर गया उसकी अरथी के साथ पुलिस अधिकारी के दूसरे रिश्तेदारों को शमशान भूमि तक जाना था, किसी पुलिस अफसर के रिश्तेदार पैदल अरथी के साथ जावें यह वर्दी के लिए शर्म की बात है बस इसी सोच और परम्परा के चलते कोतवाली के कई सिपाही ओर दरोगा दौड़ गये चैराहा अय्यूब खां टैक्सी स्टैण्ड पर और वहां रोजी रोटी की तलाश में खड़ी दो कारों को आदेश दिया कि साहब के रिश्तेदारों को लेकर जाओ, टैक्सी वाले बेचारे गुलाम गण मजबूर थे देश के मालिकों की बेगार करने को, यहां तककि डीजल के पैसे तक नहीं दिये गये और रात ग्यारह बजे छोड़ा गया, क्योंकि 26 जनवरी 1950 को लागू किये गये संविधान ने वर्दी को गुलाम गणों से बेगार कराने का अधिकार दिया है। 26 जनवरी 1950 को लागू किये गये संविधान में खादी और वर्दी को दी गयी आजादी और गण को ज्यों का त्यों गुलाम बनाकर रखने का एक छोटा सा सबूत और बतादें।
सभी जानते है कि देश भर में अकसर दुपहिया वाहनों की चैकिंग के नाम पर उगाही करने का प्रावधान है इन चैकिंगों के दौरान गुलाम गणों से बीमा, डीएल, वाहन के कागज और हैल्मेट के नाम पर सरकारी व गैरसरकारी उगाहियां की जाती है लेकिन आजतक कभी किसी वर्दीधरी को चैक नहीं किया गया जबकि हम दावे के साथ कह सकते है कि 65 फीसद वर्दी वाले वे वाहन चलाते हैं जो लावारिस मिला हुई है चोरी में बरामद हुई होती हैं। लगभग एक साल पहले बरेली के थाना किला की चैकी किला पर उगाही की जा रही थी इसी बीच थाना सीबी गंज का एक युवक ऊधर से गुजरा वर्दी वालों ने रोक लिया उसके पेपर्स देखे और सब कुछ सही होने पर उसके पेपर उसे वापिस दे दिये साथ ही उसका चालान भी भर दिया उगाही की ताबड़तोड़ की यह हालत थी कि चालान पत्र पर गाड़ी की आरसी जमा करने का उल्लेख किया जबकि उसकी आरसी, डीएल, बीमा आदि उसको वापिस भी दे दिया। गुजरे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान चुनाव आयोग ने मतदाताओं की खरीद फरोख्त को रोकने के लिए ज्यादा रकम लेकर चलने पर रोक लगा दी इसके तहत चैपहिया वाहनों की तलाशियां कराई गयी इस तलाशी अभियान में भी सिर्फ गुलाम गणों की ही तलाशियां ली गयी। चुनाव आयोग ने खददरधारियों पर रोक लगाने की कोशिश की लेकिन खददरधारियों ने उसका तोड़ तलाश लिया। खददरधारियों ने पैसा लाने ले जाने के लिए अपने वाहनों का प्रयोग नही किया बल्कि "पुलिस, यूपीपी,
उ0प्र0पुलिस, पुलिस चिन्ह" बने वाहनों का इस्तेमाल किया या वर्दीधारी को साथ बैठाकर रकम इधर से ऊधर पहुंचाई, क्योकि खददरधारी जानते है कि वर्दी और वर्दी के वाहन चैक करने की हिम्मत तो किसी में है ही नहीं। चुनाव आयोग के अरमां आसुंओं में बह गये।
इस तरह के लाखों सबूत मौजूद है यह साबित करने के लिए कि 15 अगस्त 1947 को "गण" आजाद नहीं हुए
बल्कि सिर्फ मालिकों के चेहरे बदले ओर 26 जनवरी 1950 को लागू किये गये संविधान में "गण" के लिए कुछ नहीं जो कुछ अधिकार ओर आजादी दी गयी है वह सिर्फ वर्दी ओर खादी को दी गयी है। इसलिए हमारा मानना है कि "गण्तन्त्र" नहीं बल्कि खादीतन्त्र और वर्दीतन्त्र है।
लेखक-इमरान नियाज़ी वरिष्ठ पत्रकार एंव "अन्याय विवेचक" के सम्पादक हैं।

Monday 27 January 2014

शिवराज का तीसरा कार्यकाल

8 दिसंबर की सर्द सुबह अपने साथ एक नई उम्मीद और नया उजास लेकर आई। इस उजास में राष्ट्र जागरण का
संदेश तो था ही साथ में लोकतंत्र की मजबूती के लिए एक प्रभावी चेतना दिखाई दे रही थी।  जिस तरह से  चार
राज्यों के नतीजों में भाजपा ने अपना प्रदर्शन किया उससे लोकतंत्र के प्रति विश्वभर में एक नया संदेश पहुंचा।
मध्यप्रदेश की बात करें तो यहां फिर भाजपा फिर शिवराज का फार्मूला भाजपा के लिए काफी कारगर साबित हुआ।
प्रदेश में जबरदस्त बढ़त के साथ भाजपा ने डेढ़ सौ से ज्यादा सीटों पर अपना स्थान सुनिश्चित किया। इस जीत के
साथ सत्ता में शिवराज की हैट्रिक लगी। इस हैट्रिक में स्वर्णिम मध्यप्रदेश का उत्साह नजर आया। मप्र के मतदाताओं ने शिवराजसिंह चैहान पर पूरा भरोसा किया है और उन्हें सत्ता सौंपी है इसलिए इस युवा मुख्यमंत्री के सामने अब चुनौतियां भी बढ़ गई हैं। भाजपा की सत्ता में वापसी के साथ प्रदेशवासियों की उम्मीदें शिवराज से और बढ़ जाऐंगी। विकास के मुद्दे पर सत्ता में फिर लौटे शिवराज से अब अधूरे कामों को पूरे करने को लेकर मांग की जाएगी। इन सभी अपेक्षाओं पर खरा उतरना शिवराज और उनके साथियों के लिए काफी मुश्किलभरा रहने वाला है। हालांकि विभिन्न राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा के सफल प्रदर्शन का असर लोकसभा चुनावों पर भी पडेगा। वैसे भी पार्टी पहले ही नमो नमो का नारा देकर अपनी मंशा जाहिर कर चुकी है। यदि पार्टी नमो नमो
के इस नारे को भी फिर भाजपा फिर शिवराज की तर्ज पर भुनाने में सफल रही तो उसका सबसे ज्यादा फायदा
राजस्थान, छत्तीसगढ़ सहित मप्र को भी पहुंचेगा और तब मुख्यमंत्री शिवराज की असली परख की जाएगी। प्रदेश की जनता ने पिछले समय हुए विकास कार्यों को देखते हुए जिस भाजपानीत सरकार को चुना उस पर विकास की गति को तेज करने का दोहरा दबाव रहने वाला है। प्रदेश विकास के लिए योजनाऐं तो काफी बन चुकी हैं। मगर जरूरत अब इन्हें धरातल पर लाए जाने की महसूस की जा रही है। शिवराज से अब घोषणावीर की छवि से निकलकर
कर्मवीर बनने की मांग जनता द्वारा की जाएगी। यह मांग ही शिवराज के राजनीतिक जीवन को तय करने वाली दिखाई दे रही है।
पिछली पारियों में भाजपा ने प्रदेश विकास का जो फार्मूला दिया है वह इंदौर, भोपाल तक ही सिमटकर रह गया है। प्रदेश सरकार पर समूचे प्रदेश के विकास की जिम्मेदारी का दबाव रहने वाला है। प्रदेश में हैट्रीक के साथ जनता की अपेक्षाऐं भी बढ़ती नजर आ रही हैं। प्रदेश के मुखिया शिवराज से हर हाथ काम और हर शहर सुविधा मांग रहा है। जो काफी चुनौतियों भरा रह सकता है। जिस तरह से ग्लोबल इंवेस्टर्स मीट में मेमोरेंडम आफ अंडरस्टेंडिंग पर हस्ताक्षर किए गए उन्हें वास्तविकता के धरातल पर उतारा जाना भाजपानीत सरकार के लिए बेहद जरूरी हो जाएगा। जब बात उज्जैन की हो तो यह काफी अहम हो जाता है। राजनीतिक परिदृश्य में उज्जैन भाजपा का मजबूत गढ़ रहा है। पिछले चुनावों में भाजपा को मिली जीत और इस चुनाव में लोगों द्वारा शिवराज और विकास को दिया गया जबरदस्त समर्थन एक बार फिर भाजपा सरकार में जोश और दम भरने के लिए पर्याप्त है। शहर के लिए भाजपा की यह जीत इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आगामी समय में 2016 के दौरान सिंहस्थ आयोजन होना है। शहर के नगर निगम बोर्ड में भी इस बार भाजपा का वर्चस्व बना रहा वहीं प्रदेश में हैट्रिक बनाने के बाद अब सरकार से तालमेल की आस लगाई जा रही है। यदि शहर विकास के मुद्दे पर जनप्रतिनिधियों में आपसी सामंजस्य बना रहता है तो जनता को बहुत लाभ मिल सकता है। यही उम्मीद शिवराज सरकार से लगाई जा रही है। इसके अलावा उज्जैन उत्तर के विधायक पारस जैन प्रदेश के मंत्रीमंडल में कई बार शामिल रहे हैं। जिस कारण उज्जैन की ओर विकास की अपेक्षा बढ़ जाती है। दक्षिण से जनता ने डाॅ. मोहन यादव पर विश्वास जताया है। जिस कारण सभी को दक्षिण में भी विकास की बयार चलने की आस लगी है। खुद मुख्यमंत्री शिवराज का भी उज्जैन से लगाव किसी से छुपा नहीं है। जिस कारण शहर के लिए विकास का पिटारा खुल सकता है। मगर इन सभी के बावजूद चुनौतियां  मुंहबाऐं खड़ी हैं। यदि भाजपा की यह सरकार इन चुनौतियों पर खरी उतरी तो शिवराज और अन्य सहयोगियों का कद और बड़ा हो सकता है। और अगर ऐसा नहीं हुआ तो सभी जानते हैं जनता ने दिग्गी राजा को अभी तक नहीं बख्शा है।

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