Monday 14 April 2014

मुद्दा वही जो वोट दिलाए ...!!

भाजपा के साथ केंद्ग में राजसुख भोग चुके अजीत सिंह यदि नरेन्द्र मोदी को समंदर में फेंकने की बात करते हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी महज सात प्रशासनिक अधिकारयों के तबादले से बिफर कर चुनाव आयोग से टकराव मोल लेती है और उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री आजम खान यदि  कारगिल युद्ध में जान गंवाने वाले वीरों की शहादत को भी धर्म से जोड़ कर देखते हैं तो क्या इसलिए कि वे नामसझ हैं। उन्हें इसकी जनता में होने वाली अच्छी - बुरी प्रतिक्रिया का भान नहीं है। बिल्कुल नहीं। दरअसल अपने - अपने क्षेत्र के इन घुटे हुए  नेताओं के इस पासे के पीछे उनकी  सोची - समझी चाल है। जो मुख्य रूप से वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित हैं। हमारे राजनेताओं को उचित - अनुचित और शोभनीय - अशोभनीय से कोई मतलब नहीं है। उनके लिए  मुद्दा वही जो उन्हें वोट दिला सके। चाहे इसके लिए तामिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता को जेलों में बंद पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की माफी का पासा ही क्यों न फेंकना पड़े। यदि हम बात दल - बदल की राजनीति के पुरोधा अजीत सिंह की  करें, तो मोदी को समंदर में फेंकने के उनके पासे के पीछे उनका वोट बैंक का गणित है। उनके निर्वाचन क्षेत्र में जाट और मुस्लिम मतदाता निर्णायक माने जाते हैं। जनाब ने जाटों के अारक्षण का रास्ता साफ कर एक वोट बैंक में पहले ही सेंधमारी कर ली थी। अब मुस्लिमों को लुभाने की बारी थी। लिहाजा मोदी को समंदर में फेंकने की बात कह उन्हें खुश करने की कोशिश की। हालांकि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि कल को केंद्र में  मोदी की सरकार बने तो अजीत सिंह उन्हीं के मंत्रीमंडल की शोभा बढ़ाते नजर आ जाएं। यही हाल उत्तर प्रदेश के आजम खान का  भी है। मौका चुनाव का है, तो मुस्लिमों का रहनुमा बनने का इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता है कि जाबांज सैनिकों की शहादत की ही मजहबीकरण कर दिया जाए। आजम के राजनीतिक गुरु मुलायम सिहं यादव को भी इससे क्या एेतराज हो सकता है यदि मुजफ्फरनगर दंगे से नाराज मुस्लिम मतदाता किसी भी उपाय से उनके पाले में चले आएं। चाहे इसके लिए सैनिकों की शहादत से ही खिलवाड़ क्यों न करना पड़े। अब देखते हैं कि मुस्लिम मतदाता कैसे दूसरे पाले में जाते हैं। रही बात पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की। तो एेन चुनाव से पहले उन्हें अपनी लड़ाकू छवि को चमकाने के लिए किसी विलेन की आवश्यकता थी। सूबे में अब कांग्रेस - माकपा दोनों लुंज - पुंज हालत में है। भाजपा का कोई खास अाधार है नहीं। सो आखिर वे किससे लड़ती। लिहाजा चुनाव आयोग से ही टकराव मोल ली। कार्यकर्ताओं औऱ जनता में संदेश चला गया कि ममता बनर्जी अब भी पीड़ित है। उनके लिए लड़ रही है।  यह और बात है कि कभी विरोधी नेत्री होते हुए अायोग के हक में वे तत्कालीन कम्युनिस्ट सरकार से लड़ चुकी है। लेकिन हालात बदले तो किरदार को भी बदलना ही था। इसीलिए कहा गया है ... यह राजनीति है ... इसमें सब जायज है....
तारकेश कुमार ओझा

Thursday 10 April 2014

क्या बुढ़ापे में चक्रव्यूह का भेदन कर पायेंगे सपा प्रमुख



आजमगढ़ संसदीय सीट से चुनावी समर में उतरे सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह यादव जाति के भीतर जाति के चक्रव्युह में उलझते नजर आ रहे है। गुरू व चेले के मध्य हो रहे काफी रोचक संघर्ष में जाति के भीतर जाति का दांव न सिर्फ सपाई रणनीतिकारों की पेशानी पर बल डाल रहा हैए बल्कि माई समीकरण भी बिखराव की ओर है। भाजपा प्रत्याशी रमाकान्त यादव के साथ.साथ बसपा व कौमी एकता फैक्टर भी निष्कंटक राह मे रोड़े अटका रहा है। ऐसे में वाराणसी से नरेन्द्रमोदी के चुनाव लड़ने की घोषणा होते ही आजमगढ़ से चुनाव लड़ने का एलान कर सपा सुप्रीमों ने बड़ा दांव तो चला लेकिन सियासत की बिसात पर यह दांव व रणनीति पूर्वाचल में बहुत हद तक अभी परवान नहीं चढ़ सकी है। फौरी तौर पर बड़े कद का नेता होने की वजह से ही भाजपा के बाहुवली सांसद रमाकान्त यादव के मुकावले मुलायम सिंह यादव का पलड़ा भेले ही भारी नजर आ रहा हो लेकिन यहां उन्हें वाकओवर मिलता कों कत्तई नजर नहीं आ रहा है।
भाजपा प्रत्याशी के साथ साथ उन्हें बसपा प्रत्याशी एवं कौमी एकता फैक्टर से भी बड़ा खतरा है। मुस्लिम यादव समीकरण मुलायम सिंह की बड़ी ताकत है। आजमगढ़ उनके इस पुराने नुस्खे की तगड़ी जोर आजमाइश हो रही है। शायद यही वजह है कि चुनावी चक्रब्यूह में उलझे पिता के चुनाव की कमान सीएम बेटे अखिलेश सिंह यादव ने सम्भाल रखी है। बेहद उलझे सामाजिक समीकरणों वाले आजमगढ़ संसदीय क्षेत्र में सामाजिक ध्रुवीकरण कोई नया फैक्टर नहीं है। 1967 में डाण् राममनोहर लोहिया के समय के बाद आजमगढ़ समाजवादियों का गढ़ तो हो गया लेकिन रामजन्म भूमि आन्दोलन के बाद खासा उलझ भी गया। जिस सामाजिक समीकरण को लेकर समाजवादी पार्टी वजूद में आयी उस यादव और मुस्लिम वोट बैंक का ज्वलन्त नमूना आजमगढ़ है। आजमगढ़ में माई समीकरण बेहद मुफीद रहा है। 25 फीसद मुसलमान और 20 फीसद यादव मुलायम के लिए काफी मुफीद माना जाता रहा है। लेकिन 30 फीसद दलित अन्य 25 फीसद में सवर्ण व गैर यादव पिछड़ा वर्ग का भी वोट बेहद अहम रहा है। इसीलिए आजमगढ़ इलाके में बसपा भी दलित मुस्लिम कमेस्टी के सहारे परचम फहराने में सफल रही है।
साम्प्रदायिक रूप से बेहद ध्रुवीकृत की स्थिति में यादव के साथ ही उन्हें दलित का कुछ हिस्सा एवं अन्य वोट मिलता रहा है। लेकिन केन्द्र मे यादव ही रहा जिसके स्थानीय स्तर पर रमाकान्त यादव सबसे बड़े नेता माने जाते हैं। खास बात यह है कि रमाकान्त यादव न सिर्फ पहले सपा में ही रहे हैं बल्कि मुलायम सिंह यादव के चेले भी रहे हैं। इसलिए गुरू के हर दांव की काट भी उन्हें बखूबी मालूम हैं। वह 1996 0 1999 में सपा तथा 2004 में बसपा और 2009 में भाजपा के टिकट पर चुनाव भी जीत चुके हैं। चार चार बार सांसद रहे रमाकान्त पांचवीं बार संसद पहुंचने के लिए पूरी प्रतिष्ठा एवं ताकत लगाये हुए हैं। माहौल कुछ ऐसा रहा कि साम्रप्रदायिक ध्रुवीकरण के चलते यादव के साथ गैर मुस्लिम वोट हासिल कर रमाकान्त संसद पहुंते रहे हैं। इस दफा रमाकान्त यादव को तगड़ी चुनौती देने के लिए बसपा ने स्थानीय विधायक गुड्डू जमाली को टिकट थमाया है। मुलायम सिंह यादव के आने के पहले तक रमाकान्त यादव एवं जमाली में ही सीधी भिड़न्त हो रही थी। लेकिन मुलायम सिंह यादव के मैदान में उतरने से लड़ाई काफी दिलचस्प हो गयी है।
यादव मतदाता का जाहिर तौर पर झुकाव मुलायम सिंह यादव की तरफ है। लेकिन ज्यादातर अब भी भ्रमित हैं। जिसकी वजह यहां जाति के भीतर ही जाति का हो रहा संघर्ष है। आजमगढ़ में दो यादव उपजातियां धड़ौर व ग्वाल हैं। मुलायम धड़ौर है तो रमाकान्त यादव ग्वाल हैं। खास बात यह है कि आजमगढ़ में ग्वालों की संख्या काफी अधिक है। मुलायम सिंह यादव का पूरा गणित यादव व मुस्लिम वोट बैंक पर ही टिका है। माना जाता रहा है कि मतदान तक यादवों का बड़ा हिस्सा उनके पास जायेगा लेकिन असली सफलता मुस्लिमों के रूख से पैदा होगी। सपा के लिए मुजफ्फर नगर दंगों का कलंक एवं सुप्रीमकोर्ट द्वारा भी लापरवाही के लिए प्रदेश सरकार को जिम्मेदार ठहराने के बाद लगा झटका एवं बसपा के विधायक गुड्डू जमाली और कौमी एकता पार्टी तथा अन्य छोटी.छोटी सियासी पार्टियां भी मुलायम सिंह यादव के लिए चुनौती पैदा कर रही हैं।
बाहुबली विधायक मुख्तार अंसारी की कौमी एकता का नारा है हम सीट नहीं पहचान के लिए लड़ते हैं। जमाली और कौमी एकता को भी यदि मुस्लिमों का वोट मिला तो मुलायम सिंह यादव के लिए चुनौती काफी गहरा सकती है। शायद यही वजह है कि मुलायम सिंह को यह भरोसा भी देना पड़ रहा है कि वह जीते तो इस इलाके को छोड़कर नहीं जायेंगे। क्योंकि चर्चा यह भी है कि नेता जी जीतेंगे तो मैनपुरी सीट को कायम रख यहां से अपने दूसरे बैटे प्रतीक यादव को चुनाव लड़ायेंगे। वैसे भी पहले से ही आजमगढ़ से प्रतीक यादव को चुनाव लड़ाये जाने की मांग हो रही थी। लेकिन सपा ने पहलें मंत्री बलराम यादव फिर फिर सपा जिलाध्यक्ष हवलदार यादव को अपना उमीदवार घोषित किया था।
अब तीसरी बार हुए बदलाव में खुद सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव उम्मीदवार के रूप में मैदान में हैं। जहां जाति के भीतर ही जाति के चक्रव्यूह में उलझते नजर आ रहे हैं। उनका माई समीकरण भी यहां सियासत की कसौटी पर कसा जा रहा है। वैसे भी आजमगढ़ से सटी ज्यादातर सीटों पर बसपा एवं भाजपा ही काबिज है। लालगंजए जौनपुरए सन्तकबीरनगरए अम्बेडकरनगर आदि सीटों पर बसपा का कब्जा है। ऐसे में भाजपा के कब्जे वाली सीट सपा की झोली में डालना सपा मुखिया के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। फिलहाल पूर्वांचल की अन्य सीटों पर प्रभाव डालने की रणनीति असरकारी होती नहीं दिखाई पड़ रही है। लेकिन यह चुनाव है। अभी कितने समीकरण बनेंगेए बिगड़ेंगे। किसी तरह की भविष्य करना जल्दबाजी होगा। वैसे प्रबुद्धवर्गीय लोगों का कहना है कि क्या इस उम्र में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव महासमर. 2014 में चक्रव्यूह का भेदन कर पायेंगे