Saturday 7 June 2014

अनहोनी को होनी कर दे.....!!


तब मेहमानों के स्वागत में शरबत ही पेश किया जाता था। किसी के दरवाजे पहुंचने पर पानी के साथ चीनी या गुड़ मिल जाए तो यही बहुत माना जाता था। बहुत हुआ तो घर वालों से मेहमान के लिए रस यानी शरबत बना कर लाने का आदेश होता। खास मेहमानों के लिए नींबूयुक्त शरबत पेश किया जाता । लेकिन इस बीच बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शीतल पेय ने भी  देश में दस्तक देनी शुरू कर दी थी। गांव जाने को ट्रेन पकड़ने के लिए कोलकाता जाना होता. तब हावड़ा रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर हाकरों द्वारा पैदा की जाने वाली शीतल पेय के बोतलो की ठुकठुक की आवाज मुझमें इसके प्रति गहरी जिज्ञासा पैदा करने लगी थी। एक शादी में पहली बार शीतल पेय पीने का मौका मिलने पर पहले ही घुंट में मुझे उबकाई सी आ गई थी । मुझे लगता था कि बोतलबंद शीतल पेय शरबत जैसा कोई मजेदार पेय होगा। लेकिन गैस के साथ खारे स्वाद ने मेरा जायका बिगाड़ दिया था। लेकिन कुछ अंतराल के बाद शीतल पेय के विज्ञापन की कमान तत्कालीन क्रिकेटर इमरान खान व अभिनेत्री रति अग्निहोत्री समेत कई सेलीब्रिटीज ने संभाली और आज देश में शीतल पेय का बाजार सबके सामने है। कभी - कभार गांव जाने पर वहां की दुकानों में थर्माकोल की पेटियों में बर्फ के नीचे दबे शीतल पेय की बोतलों को देख कर मैं सोच में पड़ जाता हूं कि ठंडा यानी शीतल पेय शहरी लोग ज्यादा पीते हैं या ग्रामीण। खैर , पूंजी औऱ बाजार की ताकत का दूसरा उदाहरण मुझे कालेज जीवन में  क्रिकेट के तौर पर देखने को मिला । 1983 में भारत के विश्व कप जीत लेने की वजह से तब यह खेल देश के मध्यवर्गीय लोगों में भी तेजी से लोकप्रिय होने लगा था। लेकिन इस वजह से   अपने सहपाठियों के बीच मुझे झेंप होती थी क्योंकि मैं क्रिकेट के बारे में कुछ भी नहीं जानता था। मुझे यह अजीब खेल लगता था। मेरे मन में  अक्सर सवाल उठता  कि आखिर यह कैसा खेल है जो पूरे - पूरे दिन क्या लगातार पांच दिनों तक चलता है। कोई गेंदबाज कलाबाजी खाते हुए कैच पकड़ता औऱ मुझे पता चलता कि विकेट कैच लपकने वाले को नहीं  बल्कि उस गेंदबाज को मिला है जिसकी गेंद पर बल्लेबाज आउट हुआ है, तो मुझे बड़ा आश्चर्य होता। मुझे लगता कि विकेट तो गेंदबाज को मिलना चाहिए , जिसने कूदते - फांदते हुए कैच लपका है। इसी कश्मकश में क्रिकेट कब हमारे देश में धर्म बन गया, मुझे पता ही  नहीं चला। इसी तरह कुछ साल पहले अाइपीएल की चर्चा शुरु हुई तो मुझे फिर बड़ी हैरत हुई। मन में तरह - तरह के सवाल उठने लगे। आखिर यह कैसा खेल है, जिसमें खिलाड़ी की बोली लगती है। टीम देश के आधार पर नहीं बल्कि अजीबोगरीब नामों वाले हैं। यही नहीं इसके खिलाड़ी भी अलग - अलग देशों के हैं। लेकिन कमाल देखिए कि देखते ही देखते क्या अखबार औऱ क्या चैनल सभी अाइपीएल की खबरों से पटने लगे। जरूरी खबर रोककर भी अाइपीएल की खबर चैनलों पर चलाई जाने लगी। यही नहीं कुछ दिन पहले कोलकाता नामधारी एक टीम के जीतने पर वहां  एेसा जश्न मना मानो भारत ने ओलंपिक में कोई बड़ा  कारनामा कर दिखाया हो। करोड़ों में खेलने वाले इसके खिलाड़ियों का यूं स्वागत हुआ मानो वे  मानवता पर उपकार करने वाले कोई मनीषी या देश औऱ समाज के लिए मर - मिटने वाले वीर - पुरुष हों। एक तरफ जनता लाठियां खा रही थी, दूसरी तरफ मैदान में शाहरूख  और जूही ही क्यों तमाम नेता - अभिनेता  और अभिनेत्रियां नाच रहे थे। पैसों के बगैर किसी को अपना पसीना भी नहीं देने वाले अरबपति खिलाड़ियों को महंगे उपहारों से पाट दिया गया। इस मुद्दे पर राज्य व देश में बहस चल ही रही है। लिहाजा इसमें अपनी टांग घुसड़ने का कोई फायदा नहीं। लेकिन मुझे लगता है कि ठंडा यानी शीतल पेय हो किक्रेट या फिर अाइपीएल। यह क्षमता व पूंजी की ताकत ही है, जो अनहोनी को भी होनी करने की क्षमता रखती है। पता नहीं भविष्य में यह ताकत देश में और क्या - क्या करतब दिखाए। 
तारकेश कुमार ओझा

Monday 14 April 2014

मुद्दा वही जो वोट दिलाए ...!!

भाजपा के साथ केंद्ग में राजसुख भोग चुके अजीत सिंह यदि नरेन्द्र मोदी को समंदर में फेंकने की बात करते हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी महज सात प्रशासनिक अधिकारयों के तबादले से बिफर कर चुनाव आयोग से टकराव मोल लेती है और उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री आजम खान यदि  कारगिल युद्ध में जान गंवाने वाले वीरों की शहादत को भी धर्म से जोड़ कर देखते हैं तो क्या इसलिए कि वे नामसझ हैं। उन्हें इसकी जनता में होने वाली अच्छी - बुरी प्रतिक्रिया का भान नहीं है। बिल्कुल नहीं। दरअसल अपने - अपने क्षेत्र के इन घुटे हुए  नेताओं के इस पासे के पीछे उनकी  सोची - समझी चाल है। जो मुख्य रूप से वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित हैं। हमारे राजनेताओं को उचित - अनुचित और शोभनीय - अशोभनीय से कोई मतलब नहीं है। उनके लिए  मुद्दा वही जो उन्हें वोट दिला सके। चाहे इसके लिए तामिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता को जेलों में बंद पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की माफी का पासा ही क्यों न फेंकना पड़े। यदि हम बात दल - बदल की राजनीति के पुरोधा अजीत सिंह की  करें, तो मोदी को समंदर में फेंकने के उनके पासे के पीछे उनका वोट बैंक का गणित है। उनके निर्वाचन क्षेत्र में जाट और मुस्लिम मतदाता निर्णायक माने जाते हैं। जनाब ने जाटों के अारक्षण का रास्ता साफ कर एक वोट बैंक में पहले ही सेंधमारी कर ली थी। अब मुस्लिमों को लुभाने की बारी थी। लिहाजा मोदी को समंदर में फेंकने की बात कह उन्हें खुश करने की कोशिश की। हालांकि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि कल को केंद्र में  मोदी की सरकार बने तो अजीत सिंह उन्हीं के मंत्रीमंडल की शोभा बढ़ाते नजर आ जाएं। यही हाल उत्तर प्रदेश के आजम खान का  भी है। मौका चुनाव का है, तो मुस्लिमों का रहनुमा बनने का इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता है कि जाबांज सैनिकों की शहादत की ही मजहबीकरण कर दिया जाए। आजम के राजनीतिक गुरु मुलायम सिहं यादव को भी इससे क्या एेतराज हो सकता है यदि मुजफ्फरनगर दंगे से नाराज मुस्लिम मतदाता किसी भी उपाय से उनके पाले में चले आएं। चाहे इसके लिए सैनिकों की शहादत से ही खिलवाड़ क्यों न करना पड़े। अब देखते हैं कि मुस्लिम मतदाता कैसे दूसरे पाले में जाते हैं। रही बात पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की। तो एेन चुनाव से पहले उन्हें अपनी लड़ाकू छवि को चमकाने के लिए किसी विलेन की आवश्यकता थी। सूबे में अब कांग्रेस - माकपा दोनों लुंज - पुंज हालत में है। भाजपा का कोई खास अाधार है नहीं। सो आखिर वे किससे लड़ती। लिहाजा चुनाव आयोग से ही टकराव मोल ली। कार्यकर्ताओं औऱ जनता में संदेश चला गया कि ममता बनर्जी अब भी पीड़ित है। उनके लिए लड़ रही है।  यह और बात है कि कभी विरोधी नेत्री होते हुए अायोग के हक में वे तत्कालीन कम्युनिस्ट सरकार से लड़ चुकी है। लेकिन हालात बदले तो किरदार को भी बदलना ही था। इसीलिए कहा गया है ... यह राजनीति है ... इसमें सब जायज है....
तारकेश कुमार ओझा

Thursday 10 April 2014

क्या बुढ़ापे में चक्रव्यूह का भेदन कर पायेंगे सपा प्रमुख



आजमगढ़ संसदीय सीट से चुनावी समर में उतरे सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह यादव जाति के भीतर जाति के चक्रव्युह में उलझते नजर आ रहे है। गुरू व चेले के मध्य हो रहे काफी रोचक संघर्ष में जाति के भीतर जाति का दांव न सिर्फ सपाई रणनीतिकारों की पेशानी पर बल डाल रहा हैए बल्कि माई समीकरण भी बिखराव की ओर है। भाजपा प्रत्याशी रमाकान्त यादव के साथ.साथ बसपा व कौमी एकता फैक्टर भी निष्कंटक राह मे रोड़े अटका रहा है। ऐसे में वाराणसी से नरेन्द्रमोदी के चुनाव लड़ने की घोषणा होते ही आजमगढ़ से चुनाव लड़ने का एलान कर सपा सुप्रीमों ने बड़ा दांव तो चला लेकिन सियासत की बिसात पर यह दांव व रणनीति पूर्वाचल में बहुत हद तक अभी परवान नहीं चढ़ सकी है। फौरी तौर पर बड़े कद का नेता होने की वजह से ही भाजपा के बाहुवली सांसद रमाकान्त यादव के मुकावले मुलायम सिंह यादव का पलड़ा भेले ही भारी नजर आ रहा हो लेकिन यहां उन्हें वाकओवर मिलता कों कत्तई नजर नहीं आ रहा है।
भाजपा प्रत्याशी के साथ साथ उन्हें बसपा प्रत्याशी एवं कौमी एकता फैक्टर से भी बड़ा खतरा है। मुस्लिम यादव समीकरण मुलायम सिंह की बड़ी ताकत है। आजमगढ़ उनके इस पुराने नुस्खे की तगड़ी जोर आजमाइश हो रही है। शायद यही वजह है कि चुनावी चक्रब्यूह में उलझे पिता के चुनाव की कमान सीएम बेटे अखिलेश सिंह यादव ने सम्भाल रखी है। बेहद उलझे सामाजिक समीकरणों वाले आजमगढ़ संसदीय क्षेत्र में सामाजिक ध्रुवीकरण कोई नया फैक्टर नहीं है। 1967 में डाण् राममनोहर लोहिया के समय के बाद आजमगढ़ समाजवादियों का गढ़ तो हो गया लेकिन रामजन्म भूमि आन्दोलन के बाद खासा उलझ भी गया। जिस सामाजिक समीकरण को लेकर समाजवादी पार्टी वजूद में आयी उस यादव और मुस्लिम वोट बैंक का ज्वलन्त नमूना आजमगढ़ है। आजमगढ़ में माई समीकरण बेहद मुफीद रहा है। 25 फीसद मुसलमान और 20 फीसद यादव मुलायम के लिए काफी मुफीद माना जाता रहा है। लेकिन 30 फीसद दलित अन्य 25 फीसद में सवर्ण व गैर यादव पिछड़ा वर्ग का भी वोट बेहद अहम रहा है। इसीलिए आजमगढ़ इलाके में बसपा भी दलित मुस्लिम कमेस्टी के सहारे परचम फहराने में सफल रही है।
साम्प्रदायिक रूप से बेहद ध्रुवीकृत की स्थिति में यादव के साथ ही उन्हें दलित का कुछ हिस्सा एवं अन्य वोट मिलता रहा है। लेकिन केन्द्र मे यादव ही रहा जिसके स्थानीय स्तर पर रमाकान्त यादव सबसे बड़े नेता माने जाते हैं। खास बात यह है कि रमाकान्त यादव न सिर्फ पहले सपा में ही रहे हैं बल्कि मुलायम सिंह यादव के चेले भी रहे हैं। इसलिए गुरू के हर दांव की काट भी उन्हें बखूबी मालूम हैं। वह 1996 0 1999 में सपा तथा 2004 में बसपा और 2009 में भाजपा के टिकट पर चुनाव भी जीत चुके हैं। चार चार बार सांसद रहे रमाकान्त पांचवीं बार संसद पहुंचने के लिए पूरी प्रतिष्ठा एवं ताकत लगाये हुए हैं। माहौल कुछ ऐसा रहा कि साम्रप्रदायिक ध्रुवीकरण के चलते यादव के साथ गैर मुस्लिम वोट हासिल कर रमाकान्त संसद पहुंते रहे हैं। इस दफा रमाकान्त यादव को तगड़ी चुनौती देने के लिए बसपा ने स्थानीय विधायक गुड्डू जमाली को टिकट थमाया है। मुलायम सिंह यादव के आने के पहले तक रमाकान्त यादव एवं जमाली में ही सीधी भिड़न्त हो रही थी। लेकिन मुलायम सिंह यादव के मैदान में उतरने से लड़ाई काफी दिलचस्प हो गयी है।
यादव मतदाता का जाहिर तौर पर झुकाव मुलायम सिंह यादव की तरफ है। लेकिन ज्यादातर अब भी भ्रमित हैं। जिसकी वजह यहां जाति के भीतर ही जाति का हो रहा संघर्ष है। आजमगढ़ में दो यादव उपजातियां धड़ौर व ग्वाल हैं। मुलायम धड़ौर है तो रमाकान्त यादव ग्वाल हैं। खास बात यह है कि आजमगढ़ में ग्वालों की संख्या काफी अधिक है। मुलायम सिंह यादव का पूरा गणित यादव व मुस्लिम वोट बैंक पर ही टिका है। माना जाता रहा है कि मतदान तक यादवों का बड़ा हिस्सा उनके पास जायेगा लेकिन असली सफलता मुस्लिमों के रूख से पैदा होगी। सपा के लिए मुजफ्फर नगर दंगों का कलंक एवं सुप्रीमकोर्ट द्वारा भी लापरवाही के लिए प्रदेश सरकार को जिम्मेदार ठहराने के बाद लगा झटका एवं बसपा के विधायक गुड्डू जमाली और कौमी एकता पार्टी तथा अन्य छोटी.छोटी सियासी पार्टियां भी मुलायम सिंह यादव के लिए चुनौती पैदा कर रही हैं।
बाहुबली विधायक मुख्तार अंसारी की कौमी एकता का नारा है हम सीट नहीं पहचान के लिए लड़ते हैं। जमाली और कौमी एकता को भी यदि मुस्लिमों का वोट मिला तो मुलायम सिंह यादव के लिए चुनौती काफी गहरा सकती है। शायद यही वजह है कि मुलायम सिंह को यह भरोसा भी देना पड़ रहा है कि वह जीते तो इस इलाके को छोड़कर नहीं जायेंगे। क्योंकि चर्चा यह भी है कि नेता जी जीतेंगे तो मैनपुरी सीट को कायम रख यहां से अपने दूसरे बैटे प्रतीक यादव को चुनाव लड़ायेंगे। वैसे भी पहले से ही आजमगढ़ से प्रतीक यादव को चुनाव लड़ाये जाने की मांग हो रही थी। लेकिन सपा ने पहलें मंत्री बलराम यादव फिर फिर सपा जिलाध्यक्ष हवलदार यादव को अपना उमीदवार घोषित किया था।
अब तीसरी बार हुए बदलाव में खुद सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव उम्मीदवार के रूप में मैदान में हैं। जहां जाति के भीतर ही जाति के चक्रव्यूह में उलझते नजर आ रहे हैं। उनका माई समीकरण भी यहां सियासत की कसौटी पर कसा जा रहा है। वैसे भी आजमगढ़ से सटी ज्यादातर सीटों पर बसपा एवं भाजपा ही काबिज है। लालगंजए जौनपुरए सन्तकबीरनगरए अम्बेडकरनगर आदि सीटों पर बसपा का कब्जा है। ऐसे में भाजपा के कब्जे वाली सीट सपा की झोली में डालना सपा मुखिया के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। फिलहाल पूर्वांचल की अन्य सीटों पर प्रभाव डालने की रणनीति असरकारी होती नहीं दिखाई पड़ रही है। लेकिन यह चुनाव है। अभी कितने समीकरण बनेंगेए बिगड़ेंगे। किसी तरह की भविष्य करना जल्दबाजी होगा। वैसे प्रबुद्धवर्गीय लोगों का कहना है कि क्या इस उम्र में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव महासमर. 2014 में चक्रव्यूह का भेदन कर पायेंगे 

Thursday 27 March 2014

अम्बेडकरनगर: गुटबाजी के भंवर जाल में उलझी भाजपा

मुरझाये कमल की शिरा और धमनियों में रवानी भरने में जुटी भाजपा एवं पार्टी के 272 प्लस के मिशन को उम्मीदवारों के खिलाफ अपनों की हो रही बगावत ने कमल खिलने से पहले ही मुरझाने के संकेत देने शुरू कर दिये हैं। नख से लेकर सिर तक गुटबाजी के भंवर जाल में उलझी भाजपा का अर्न्तकलह प्रत्याशियों के नामों के एलान के साथ सड़कांे पर सामने आ रहा है। पार्टी का अनुशासन तरनतार करने एवं मर्यादा की सीमाएं लाघने से लोग गुरेज नहीं कर रहे हैं। जिसके कारण कीचड़ में खिलने वाला कमल यहां कलह में डूबता नजर आ रहा है। अविभाजित फैजाबाद का हिस्सा रहे अम्बेडकरनगर संसदीय सीट से भाजपा ने डॉ0 हरिओम पाण्डेय को अपना उम्मीदवार घोषित किया है। लेकिन हरिओम पाण्डेय को टिकट के दावेदारों में सुमार रहे लोग पचा नहीं पा रहे हैं। एक धड़ा तो मुखर होकर सड़क पर उतरकर हरिओम की मुखालफत कर रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी ने अम्बेडकरनगर संसदीय क्षेत्र से फायर ब्रांड नेता राज्यसभा सदस्य विनय कटियार को मैदान में उतारा था। विनय कटियार को चुनाव में कामयाबी तो नहीं मिल पायी लेकिन उन्होनें कार्यकर्ताओं को एकजुट कर चुनावी समां भी बॉध दिया था। इस बार भी कार्यकर्ता विनय कटियार को प्रत्याशी बनाये जाने की मांग कर रहे थे लेकिन स्वयं कटियार फैजाबाद से चुनावी समर में उतरना चाह रहे थे। फैजाबाद से पार्टी ने पूर्व मंत्री लल्लू सिंह को तीसरी बार मैदान में उतार दिया। लिहाजा कटियार की फैजाबाद से उम्मीदवारी पर विराम लग गया फिर उनके अम्बेडकरनगर से उतरने के कयास लगने लगे। लेकिन पार्टी ने जब अम्बेडकरनगर सीट पर प्रत्याशी का एलान किया तो कार्यकर्ता हतप्रभ रह गये। पार्टी ने हरिओम पाण्डेय को उम्मीदवार घोषित कर दिया। जिनका मुखर विरोध भी शुरू हो गया। पिछले दो वर्षों से जिले की राजनीति में खासा सक्रिय श्री राम जन्मभूमि न्यास समिति के वरिष्ठ सदस्य एवं पूर्व सांसद राम बिलास वेदान्तीए पूर्व मंत्री अनिल तिवारीए भाजपा जिलाध्यक्ष राम प्रकाश यादवए पूर्व जिलाध्यक्ष डॉ0 राजितराम त्रिपाठीए रमाशंकर सिंहए भारती सिंहए अमरनाथ सिंहए इन्द्रमणि शुक्लए शिवनायक वर्माए भीम निषादए हिन्दु युवा वाहिनी जिलाध्यक्ष सूर्यमणि यादव सहित कई अन्य प्रमुख नेताओं एवं भाजपा प्रदेश कार्य समिति सदस्य राम सूरत मौर्य आदि की दावेदारी को दरकिनार कर दिया गया जिसके कारण असंतोष मुखर होना भी लाजिमी है। टिकट नहीं मिलने से नाराज राम बिलास वेदान्ती तो इस कदर आग बबूला हो उठे हैं कि वह भाजपा को अलविदा कहने का भी मन बना चुके हैं। सूत्रों की माने तो पूर्व सांसद राम बिलास वेदान्ती सपा में शामिल होकर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के विरूद्ध लखनऊ से चुनावी समर में उतर सकते हैं। ज्यादातर कार्यकर्ताओं का मानना है कि पार्टी को अम्बेडकरनगर से किसी बड़े कद के नेता को मैदान में उतारना चाहिए। जिले के आलापुर सु0 विधानसभा क्षेत्र को अपने आप में समेटने वाली संत कबीर नगर संसदीय सीट पर तो दावेदारों की लम्बी फेहरिश्त के कारण भाजपा नेतृत्व अभी तक प्रत्याशी के नाम का एलान नहीं कर पाया है वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने यहां पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डा0 रमापति राम त्रिपाठी के पुत्र शरद त्रिपाठी को मैदान में उतारा था। लेकिन शरद त्रिपाठी को कामयाबी नहीं मिल पायी। शरद त्रिपाठी को दूसरे स्थान पर रहकर ही संतोष करना पडा था। लिहाजा इस बार भी शरद त्रिपाठी का दावा काफी मजबूत है लेकिन पूर्व सांसद इन्द्रजीत मिश्रए अष्टभुजा शुक्ला एंव पूर्व मंत्री शिव प्रताप शुक्ला जैसे कद्दावर नेताओं की दावेदारी ने पार्टी नेतृत्व को उलझन में डाल दिया है। अभी तक पार्टी कोई निर्णय नहीं कर पायी है। सूत्रों की माने तो पार्टी नेतृत्व यहंा पर राष्ट्रीय उपाध्यक्षए मुख्तार अब्बास नकवी या फिर पूर्व मुख्यमंत्री स्व0 वीर बहादुर सिंह के पुत्र जो हाल ही में भाजपा में शामिल हुए हैं। उनमें से किन्हीं एक को मैदान में उतारा जा सकता है। कार्यकर्ता शरद त्रिपाठी या फिर पूर्व मंत्री शिव प्रताप शुक्ल को प्रत्याशी बनाने की मांग कर रहे हैं। यदि किसी बड़े नेता को मैदान में नहीं उतारा गया तो शरद त्रिपाठी का उतरना तय माना जा रहा है लेकिन एलान बिलम्ब ने कार्यकर्ताओं को बेचैन कर दिया है। ऐसे में मिशन 272 प्लस के पूरा होने में खलल पैदा हो सकता है।
रीता विश्वकर्मा

Wednesday 26 March 2014

विवाद का जाल

भारत और श्रीलंका के बीच एक दूसरे के मछुआरों की गिरफ्तारी को लेकर जब-तब खटास उभर आती है। यह अच्छी बात है कि दोनों देशों ने इस तनाव को खत्म करने की दिशा में पहल की है। पिछले हफ्ते श्रीलंका ने बुधवार को एक सौ सोलह, गुरुवार को चैबीस और इसके अगले रोज बत्तीस भारतीय मछुआरों को रिहा कर दिया। उनकी जब्त की हुई नावें भी लौटा दीं। इसी तरह का कदम तमिलनाडु सरकार ने भी उठाया। दोनों तरफ से दिखाए गए इस सौहार्द ने मछुआरा प्रतिनिधियों के स्तर पर होने वाली बातचीत का रास्ता साफ कर दिया है। उनकी बैठक तेरह मार्च को होनी थी। मगर तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने साफ कर दिया था कि इस सिलसिले में कोई भी बातचीत तभी होगी जब श्रीलंका सभी भारतीय मछुआरों को छोड दे। जो बैठक तेरह मार्च को नहीं हो सकी, नए घटनाक्रम के बाद, अब अगले हफ्ते होगी। आम चुनाव के मद््देनजर यह मसला तमिलनाडु के लिए और भी संवेदनशील हो गया है। सवाल यह है कि क्या दोनों तरफ के मछुआरों को गिरफ्तारी और उत्पीडन से बचाने की चिंता स्थायी समाधान की शक्ल ले पाएगी? जनवरी में श्रीलंका के मत्यपालन एवं जल संसाधन मंत्री राजित सेनारत्ने भारत आए थे। कृषिमंत्री शरद पवार से उनकी बातचीत हुई और यह सहमति बनी कि मछुआरों की सुरक्षा का प्रश्न जल्द से जल्द सुलझाया जाए। लेकिन इसके बाद भी मछुआरों की गिरफ्तारी का क्रम जारी रहा। ऐसा दोनों तरफ से होता रहा है। उनका गुनाह बस यह होता है कि अपनी आजीविका के सिलसिले में वे जाने-अनजाने समुद्री सीमा लांघ जाते हैं और बंदी बना लिए जाते हैं। तटरक्षक बल उनके साथ मनमाना सलूक करते हैं। न उनके मानवाधिकारों की फिक्र की जाती है न उन्हें कानूनी मदद मिल पाती है। श्रीलंका और भारत के कूटनीतिक रिश्तों में कुछ बरसों से वहां के तमिलों के पुनर्वास और मानवाधिकारों का सवाल प्रमुख रहा है। विडंबना यह है कि मछुआरों से जुडे मामले में दोनों तरफ पीडित लोग तमिल समुदाय के ही होते हैं। श्रीलंका में चले गृहयुद्ध के दौरान उत्तर पूर्वी प्रांत के लोगों के लिए समुद्र में मछली पकडना मुश्किल हो गया थाय श्रीलंकाई नौसेना उन्हें कुछ सौ मीटर से आगे जाने ही नहीं देती थी। लेकिन अब उनकी शिकायत रहती है कि भारतीय मछुआरे अक्सर उनकी सीमा में घुस आते हैं और मछली पकडना शुरू कर देते हैं। इस आरोप को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर, तमिलनाडु के मछुआरों का कहना है कि यह उनका परंपरागत व्यवसाय है और इस पर कोई बंधन नहीं रहा है। लेकिन तब मशीनी नौकाएं और बडे जाल नहीं होते थे। ट्रालरों के बढते गए चलन ने गहरे समुद्र में भी मत्स्य संपदा को तेजी से खाली करना शुरू कर दिया। विवाद को सुलझाने की प्रक्रिया में दोनों तरफ के मछुआरा संगठनों के नुमाइंदों को शामिल करना स्वागत-योग्य है, पर इसका ठोस नतीजा तभी निकल सकता है जब नियमन के कुछ उपाय किए जाएं। ट्रालरों पर रोक लगे और टकराव से बचने के लिए दोनों तरफ से मछली पकडने के दिन तय हों। समुद्री सीमा के अतिक्रमण की शिकायतों को संप्रभुता का उल्लंघन न मान कर मानवीय नजरिए से सुलझाया जाए। भारत और पाकिस्तान के भी मछुआरे हर साल सैकडों की संख्या में बंदी बना लिए जाते हैं और सीमापार की जेलों में सडते रहते हैं। जब भारत और पाकिस्तान को सौहार्द का कूटनीतिक संदेश देने की जरूरत महसूस होती है, एक तरफ से कुछ मछुआरों को रिहा करने की घोषणा होती है और फिर दूसरी तरफ से भी। लेकिन यह मानवीय मसला है। इसलिए इसे कूटनीतिक गरज से नहीं, मानवाधिकारों के नजरिए से देखा जाना चाहिए।



Monday 17 March 2014

दलबदल का सिलसिला


राजनीति में कोई किसी का स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता, यह बात पहले न जाने कितने बार साबित हो चुकी है। लेकिन चुनावों के नजदीक आते ही मित्रता, शत्रुता के समीकरण जिस तेजी से बदलते हैं, उसे देखकर आश्चर्य होता है। विचारधारा नाम की जो अवधारणा बनाई गई है, वह राजनीतिक दलों और चुनावी उम्मीदवारों के संदर्भ में एकदम खोखली नजर आती है। राजनेता एक खेमे से दूसरे खेमे में जाने का प्रचलन तब से चला आ रहा है, जब से राजनीति हो रही है, इस लिहाज से इसे मानव की मूलभूत प्रवृत्तियों में एक माना जाना चाहिए। भारत में जब राजनीतिक लाभ या पद के लोभ में दलबदल की प्रवृत्ति बेलगाम दिखने लगी, तो इसे रोकने के लिए कानून बना। अब कम से कम इतना है कि नेता जल्दी-जल्दी पाला नहीं बदलते, अन्यथा संसद या विधानसभा की सदस्यता खत्म होने का खतरा रहता है। लेकिन चुनावों के वक्त इतना डर नहीं रहता। लिहाजा ठाठ से जिसे, जहां, जैसी सुविधा, लाभ मिले, वहां वह चले जाए। इस बार के चुनाव यूं तो कई मायनों में खास होने जा रहे हैं, मसलन सबसे लंबी अवधि में होने वाले चुनाव, मतदाताओं की अधिक संख्या, पहले से प्रधानमंत्री प्रत्याशी घोषित कर व्यक्ति आधारित चुनाव लडने की परिपाटी डालना, इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ सोशल मीडिया का बोलबाला, कांग्रेस, भाजपा के अलावा आम आदमी पार्टी का दिनोंदिन बढता जोर, तीसरे मोर्चे के साथ-साथ चैथे मोर्चे के लिए जमीन तलाशना यह सब हो रहा है। लेकिन सबसे रोचक है नेताओं का एक दल से दूसरे दल में जाना या गठबंधन करना या सीटों का अघोषित समझौता करना। धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, समाजवाद, पूंजीवाद, क्षेत्रीयता सबका एक दूसरे में इस कदर घालमेल हो गया है कि किसी का भी असली चेहरा पहचानना कठिन है, विचारधारा तो दूर की बात है। अमूमन टिकट न मिलने पर लोग नाराज होते हैं और दूसरी पार्टी में चले जाते हैं। यूं तो कई नामी-गिरामी लोगों ने इस बार भाजपा की सदस्यता ग्रहण की है, लेकिन टिकट और सीटों को लेकर भीतर जैसा तूफान मचा हुआ है, उससे भाजपा के लोग भी डरे हुए हैं कि न जाने क्या हो जाए। आयाराम, गयाराम की यह कहानी रोज समाचारों में आ रही है, आज उसने फलां पार्टी की सदस्यता ले ली, आज उसने फलां दल को छोड दिया। चुनाव होने और नयी सरकार बनने तक, आने-जाने का यह तमाशा जनता के लिए पेश होता रहेगा।

Friday 14 March 2014

मौत में उम्मीद...!!


मौत तो मनुष्य के लिए सदा - सर्वदा भयावह और डरावनी रही है। भला मौत भी क्या किसी में उम्मीद जगा सकती है... बिल्कुल जगा सकती है। इस बात का भान मुझे अपने पड़ोस में दारुण पीड़ा झेल रही एक  गाय का हश्र देख कर हुआ। हमारे देश में गौ  हत्या और गौ रक्षा शुरू से ही बड़ा संवेदनशील मसला रहा है। इसके बावजूद यह सच है कि अपने देश में प्रतिदिन हजारों गायें तस्करी के रास्ते कत्लखाने पहुंच जाती है। वहीं यह भी सच है कि भारतीय संस्कृति व समाज में गाय का आज भी विशेष और महत्वपूर्ण स्थान है। चरम आधुनिकता के दौर में भी देश में अनेक ऐसे परिवार है, जिनके लिए गाय आज भी माता है। लेकिन यह भी विडंबना ही है कि जिस गौ को माता कह कर हम पूजते हैं, उसके सामान्य इलाज की व्यवस्था भी विज्ञान की बुलंदियां चूम रहा हमारा समाज नहीं ढूंढ पाया है। या शायद हम इसकी जरूरत महसूस नहीं करते। दरअसल  मेरे मोहल्ले की एक गाय कुछ दिन पहले निर्माणाधीन मकान के पास बनाए गए गड्ढे में गिर गई थी। तमाम कोशिशों के बाद उसे किसी प्रकार बाहर निकाला गया। लेकिन तब तक उसकी रीढ़ की हड्डी में फ्रैक्चर हो गया  था। शहर के चुनिंदा पशु चिकित्सकों से संपर्क कर गाय का इलाज शुरू हुआ। लेकिन शुरूआती दौर में ही डाक्टरों ने स्पष्ट कर दिया कि हड्डी का ज्वाइंट खुल गया है, दो एक डोज में यदि गाय रिकवर कर ले, तो ठीक, वर्ना कुछ नहीं किया जा सकता। चूंकि गाय को मरीज की तरह बेड पर लिटा कर नहीं रखा जा सकता, इसलिए उसकी टूटी हड्डी का प्लास्टर भी संभव नहीं। आखिरकार वहीं हुआ, जिसका डर था। भीषण ठंड में मूक गाय दर्द से बेहाल होने लगी। असहज होकर वह बार - बार उठने की कोशिश करती, लेकिन इस प्रयास में उसे और चोट लगती। जो उसकी पीड़ा को और बढ़ाता जाता। लेकिन कुछ नहीं किया जा सकता था। उसकी सांघातिक पीड़ा की यह शुरूआत थी। रात - दिन दर्द से छटपटाते रहने के बाद सामने खड़ी थी, उसकी तिल - तिल कर भयावह मौत। स्पष्ट था कि एक ही स्थान पर पड़े रहने के चलते उसके चमड़े व शरीर के दूसरे हिस्सों  में सड़न पैदा होंगे। जिससे असह्य बदबू फैलेगी। भीषण कष्टों के साथ गाय की दर्दनाक मौत का साक्षी बनने की कल्पना से ही पशुपालक परिवार सिहर उठा। भुक्तभोगियों की सलाह पर आखिरकार मौत में ही उम्मीद दिखाई दी। और दिल पर पत्थर रख कर पालकों ने उसे कसाई के हवाले कर दिया। अपने सहायकों के साथ पहुंचा कसाई लाद - फांद कर मरणासन्न गाय को एक वाहन पर पटक कर उसके अंजाम तक पहुंचाने निकल पड़ा। ऐसा नहीं था कि गाय पालने वाला परिवार इससे मर्माहत नहीं था। परिवार के छोटे - बड़े सारे सदस्यों की आंखों में आंसू थे। लेकिन नियति के आगे सभी विवश थे। क्योंकि मौत ही उस मूक पशु को इस दारुण कष्ट से मुक्ति दिला सकती थी। समाज की जरूरतों के लिहाज से एक छोटे से कस्बों में भी सैकड़ों गायों की जरूरत होती है। लेकिन कस्बा या शहर तो छोड़िए , बड़े नगरों में भी जानवरों के योग्य चिकित्सक व  पशु चिकित्सालय नहीं है। आखिर यह वैज्ञानिक प्रगति है कि मानव क्लोन बनाने में जुटा विज्ञान एक बेजुबान पशु की टूटी हड्डी न जोड़ सके। पशु सुरक्षा व अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले तमाम स्वयंसेवी संगठनों का ध्यान भी शायद अब तक इस त्रासदी की ओऱ नहीं गया है। आवश्यकता के चलते गायें आज भी पाली जा रही है। लेकिन एक विडंबना यह कि गाय से उत्पन्न बछड़ों को आज कोई अपनाने को तैयार नहीं। यहां तक कि चुनिंदा गौशालाएं भी। इसकी वजह शायद समय के साथ बैलों की उपयोगिता का खत्म होते जाना है। ऐसे में सैकड़ों बछड़े लावारिस इधर - उधर भटकने को मजबूर हैं। तारकेश कुमार ओझा,