Friday 14 March 2014

मौत में उम्मीद...!!


मौत तो मनुष्य के लिए सदा - सर्वदा भयावह और डरावनी रही है। भला मौत भी क्या किसी में उम्मीद जगा सकती है... बिल्कुल जगा सकती है। इस बात का भान मुझे अपने पड़ोस में दारुण पीड़ा झेल रही एक  गाय का हश्र देख कर हुआ। हमारे देश में गौ  हत्या और गौ रक्षा शुरू से ही बड़ा संवेदनशील मसला रहा है। इसके बावजूद यह सच है कि अपने देश में प्रतिदिन हजारों गायें तस्करी के रास्ते कत्लखाने पहुंच जाती है। वहीं यह भी सच है कि भारतीय संस्कृति व समाज में गाय का आज भी विशेष और महत्वपूर्ण स्थान है। चरम आधुनिकता के दौर में भी देश में अनेक ऐसे परिवार है, जिनके लिए गाय आज भी माता है। लेकिन यह भी विडंबना ही है कि जिस गौ को माता कह कर हम पूजते हैं, उसके सामान्य इलाज की व्यवस्था भी विज्ञान की बुलंदियां चूम रहा हमारा समाज नहीं ढूंढ पाया है। या शायद हम इसकी जरूरत महसूस नहीं करते। दरअसल  मेरे मोहल्ले की एक गाय कुछ दिन पहले निर्माणाधीन मकान के पास बनाए गए गड्ढे में गिर गई थी। तमाम कोशिशों के बाद उसे किसी प्रकार बाहर निकाला गया। लेकिन तब तक उसकी रीढ़ की हड्डी में फ्रैक्चर हो गया  था। शहर के चुनिंदा पशु चिकित्सकों से संपर्क कर गाय का इलाज शुरू हुआ। लेकिन शुरूआती दौर में ही डाक्टरों ने स्पष्ट कर दिया कि हड्डी का ज्वाइंट खुल गया है, दो एक डोज में यदि गाय रिकवर कर ले, तो ठीक, वर्ना कुछ नहीं किया जा सकता। चूंकि गाय को मरीज की तरह बेड पर लिटा कर नहीं रखा जा सकता, इसलिए उसकी टूटी हड्डी का प्लास्टर भी संभव नहीं। आखिरकार वहीं हुआ, जिसका डर था। भीषण ठंड में मूक गाय दर्द से बेहाल होने लगी। असहज होकर वह बार - बार उठने की कोशिश करती, लेकिन इस प्रयास में उसे और चोट लगती। जो उसकी पीड़ा को और बढ़ाता जाता। लेकिन कुछ नहीं किया जा सकता था। उसकी सांघातिक पीड़ा की यह शुरूआत थी। रात - दिन दर्द से छटपटाते रहने के बाद सामने खड़ी थी, उसकी तिल - तिल कर भयावह मौत। स्पष्ट था कि एक ही स्थान पर पड़े रहने के चलते उसके चमड़े व शरीर के दूसरे हिस्सों  में सड़न पैदा होंगे। जिससे असह्य बदबू फैलेगी। भीषण कष्टों के साथ गाय की दर्दनाक मौत का साक्षी बनने की कल्पना से ही पशुपालक परिवार सिहर उठा। भुक्तभोगियों की सलाह पर आखिरकार मौत में ही उम्मीद दिखाई दी। और दिल पर पत्थर रख कर पालकों ने उसे कसाई के हवाले कर दिया। अपने सहायकों के साथ पहुंचा कसाई लाद - फांद कर मरणासन्न गाय को एक वाहन पर पटक कर उसके अंजाम तक पहुंचाने निकल पड़ा। ऐसा नहीं था कि गाय पालने वाला परिवार इससे मर्माहत नहीं था। परिवार के छोटे - बड़े सारे सदस्यों की आंखों में आंसू थे। लेकिन नियति के आगे सभी विवश थे। क्योंकि मौत ही उस मूक पशु को इस दारुण कष्ट से मुक्ति दिला सकती थी। समाज की जरूरतों के लिहाज से एक छोटे से कस्बों में भी सैकड़ों गायों की जरूरत होती है। लेकिन कस्बा या शहर तो छोड़िए , बड़े नगरों में भी जानवरों के योग्य चिकित्सक व  पशु चिकित्सालय नहीं है। आखिर यह वैज्ञानिक प्रगति है कि मानव क्लोन बनाने में जुटा विज्ञान एक बेजुबान पशु की टूटी हड्डी न जोड़ सके। पशु सुरक्षा व अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले तमाम स्वयंसेवी संगठनों का ध्यान भी शायद अब तक इस त्रासदी की ओऱ नहीं गया है। आवश्यकता के चलते गायें आज भी पाली जा रही है। लेकिन एक विडंबना यह कि गाय से उत्पन्न बछड़ों को आज कोई अपनाने को तैयार नहीं। यहां तक कि चुनिंदा गौशालाएं भी। इसकी वजह शायद समय के साथ बैलों की उपयोगिता का खत्म होते जाना है। ऐसे में सैकड़ों बछड़े लावारिस इधर - उधर भटकने को मजबूर हैं। तारकेश कुमार ओझा,

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