Wednesday 26 March 2014

विवाद का जाल

भारत और श्रीलंका के बीच एक दूसरे के मछुआरों की गिरफ्तारी को लेकर जब-तब खटास उभर आती है। यह अच्छी बात है कि दोनों देशों ने इस तनाव को खत्म करने की दिशा में पहल की है। पिछले हफ्ते श्रीलंका ने बुधवार को एक सौ सोलह, गुरुवार को चैबीस और इसके अगले रोज बत्तीस भारतीय मछुआरों को रिहा कर दिया। उनकी जब्त की हुई नावें भी लौटा दीं। इसी तरह का कदम तमिलनाडु सरकार ने भी उठाया। दोनों तरफ से दिखाए गए इस सौहार्द ने मछुआरा प्रतिनिधियों के स्तर पर होने वाली बातचीत का रास्ता साफ कर दिया है। उनकी बैठक तेरह मार्च को होनी थी। मगर तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने साफ कर दिया था कि इस सिलसिले में कोई भी बातचीत तभी होगी जब श्रीलंका सभी भारतीय मछुआरों को छोड दे। जो बैठक तेरह मार्च को नहीं हो सकी, नए घटनाक्रम के बाद, अब अगले हफ्ते होगी। आम चुनाव के मद््देनजर यह मसला तमिलनाडु के लिए और भी संवेदनशील हो गया है। सवाल यह है कि क्या दोनों तरफ के मछुआरों को गिरफ्तारी और उत्पीडन से बचाने की चिंता स्थायी समाधान की शक्ल ले पाएगी? जनवरी में श्रीलंका के मत्यपालन एवं जल संसाधन मंत्री राजित सेनारत्ने भारत आए थे। कृषिमंत्री शरद पवार से उनकी बातचीत हुई और यह सहमति बनी कि मछुआरों की सुरक्षा का प्रश्न जल्द से जल्द सुलझाया जाए। लेकिन इसके बाद भी मछुआरों की गिरफ्तारी का क्रम जारी रहा। ऐसा दोनों तरफ से होता रहा है। उनका गुनाह बस यह होता है कि अपनी आजीविका के सिलसिले में वे जाने-अनजाने समुद्री सीमा लांघ जाते हैं और बंदी बना लिए जाते हैं। तटरक्षक बल उनके साथ मनमाना सलूक करते हैं। न उनके मानवाधिकारों की फिक्र की जाती है न उन्हें कानूनी मदद मिल पाती है। श्रीलंका और भारत के कूटनीतिक रिश्तों में कुछ बरसों से वहां के तमिलों के पुनर्वास और मानवाधिकारों का सवाल प्रमुख रहा है। विडंबना यह है कि मछुआरों से जुडे मामले में दोनों तरफ पीडित लोग तमिल समुदाय के ही होते हैं। श्रीलंका में चले गृहयुद्ध के दौरान उत्तर पूर्वी प्रांत के लोगों के लिए समुद्र में मछली पकडना मुश्किल हो गया थाय श्रीलंकाई नौसेना उन्हें कुछ सौ मीटर से आगे जाने ही नहीं देती थी। लेकिन अब उनकी शिकायत रहती है कि भारतीय मछुआरे अक्सर उनकी सीमा में घुस आते हैं और मछली पकडना शुरू कर देते हैं। इस आरोप को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर, तमिलनाडु के मछुआरों का कहना है कि यह उनका परंपरागत व्यवसाय है और इस पर कोई बंधन नहीं रहा है। लेकिन तब मशीनी नौकाएं और बडे जाल नहीं होते थे। ट्रालरों के बढते गए चलन ने गहरे समुद्र में भी मत्स्य संपदा को तेजी से खाली करना शुरू कर दिया। विवाद को सुलझाने की प्रक्रिया में दोनों तरफ के मछुआरा संगठनों के नुमाइंदों को शामिल करना स्वागत-योग्य है, पर इसका ठोस नतीजा तभी निकल सकता है जब नियमन के कुछ उपाय किए जाएं। ट्रालरों पर रोक लगे और टकराव से बचने के लिए दोनों तरफ से मछली पकडने के दिन तय हों। समुद्री सीमा के अतिक्रमण की शिकायतों को संप्रभुता का उल्लंघन न मान कर मानवीय नजरिए से सुलझाया जाए। भारत और पाकिस्तान के भी मछुआरे हर साल सैकडों की संख्या में बंदी बना लिए जाते हैं और सीमापार की जेलों में सडते रहते हैं। जब भारत और पाकिस्तान को सौहार्द का कूटनीतिक संदेश देने की जरूरत महसूस होती है, एक तरफ से कुछ मछुआरों को रिहा करने की घोषणा होती है और फिर दूसरी तरफ से भी। लेकिन यह मानवीय मसला है। इसलिए इसे कूटनीतिक गरज से नहीं, मानवाधिकारों के नजरिए से देखा जाना चाहिए।



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